बंकू: संगम दो जहानों का #पुस्तकसमीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक: बंकू लेखक: अमित तिवारी --------------------------------------सबसे पहले तो मैं बंकू महाराज से क्षमा माँगूँगा कि उनके आने के बाद भी मिलने में काफ़ी इंतजार करवाया, और फिर यात्रा पूरी करने के बाद भी इस समीक्षा को लिखने में दो दिन लगा दिए। बहरहाल, बंकू - एक कहानी जो सामान्य होकर भी सामान्य नहीं है, क्योंकि ऐसी सामान्य कहानियाँ हमारे आसपास घटित होने हुए भी हम उनसे पूर्णत: अनभिज्ञ, अस्पर्शित रहते हैं। तो सामान्य सी इस असामान्य कहानी में क्या है खास, ये तो आपको बंकू ही बता सकता है। इसीलिए बिना देरी किए, जाइए और चलिए उसकी फुदकन…

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‘नया’, ‘साल’, ‘शुभता’

कहते हैं कि परिवर्तन संसार का नियम है; इसको सुनकर ऐसा लग सकता है मानो कि ये संसार कुछ है जिसमें परिवर्तन होता है, परंतु एक गहरी दृष्टि से देखो तो पता चलेगा कि बात ये कही जा रही है - जहाँ परिवर्तन होते रहते हैं उसी का नाम संसार है; परिवर्तनों से अलग संसार कोई स्थायी इकाई नहीं है।तो हमारे देखे परिवर्तन तो लगातार हो रहे हैं, पर क्या सब परिवर्तनों की प्रकृति एक जैसी है? उदाहरण के लिए, कमरे में फर्श पर पड़ी झाड़ू को उठाकर कोने में खड़ा कर दिया जाए तो झाड़ू की स्थिति में परिवर्तन…

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पति, पत्नी, आत्महत्या और वो बात…

मनुष्य का दुनिया में आगमन एक संबंध के परिणामस्वरूप होता है। फिर उसकी परवरिश उन लोगों के बीच होती है जो किसी-न-किसी संबंध के कारण एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। इस तरह कहा जाए तो मनुष्य का पूरा जीवन संबंधों के नेटवर्क में इधर-से-उधर होते रहने की प्रक्रिया भर है। इन्हीं संबंधों के बीच ही इंसान निरंतर जी रहा होता है। हाँ, इस बीच कभी पारिवारिक संबंध प्रमुख स्थान ले लेते हैं, कभी सामाजिक, कभी राजनैतिक, कभी व्यावसायिक तो कभी कोई अन्य, पर इंसान रहता तो संबंध के बीच ही है। इसीलिए फिर संबंध से छुटकारा पाना न…

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बधाई हो, (देश) बर्बाद हुआ है!

कुछ दिनों पहले मुझे अनेक गाँवों में जाने और वहाँ के लोगों से बात करने का अवसर मिला। वो सारे लोग जो गुटखा, तंबाकू या अन्य नशों के शिकार हैं, जब उनसे बात की तो उनकी व्यथा कुछ इस प्रकार थी, 'हाँ, हम भी इतना तो जानते हैं कि इससे मेरा नुकसान है, पर अब क्या करें! आदत पड़ गई है जो छूटती ही नहीं।' यद्यपि ये बात भी वो पूछने पर ही कह पाए, नहीं तो तंबाकू, गुटखा जैसे रोटी-पानी हो गया है जिसे खाना सामान्य बात है, ज़रूरी बात है। जब उनकी इस 'सामान्य' बात के सामने एक…

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ग्रामीण भारत की रमणीकता

आज भारत तेजी से आर्थिक तरक्की की ओर बढ़ रहा है जिसमें तरह-तरह के औद्योगिक विकास के उपक्रम संचालित किए जा रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में बड़े-बड़े शहरों में विभिन्न मल्टीनेशनल कम्पनियों के केंद्र स्थापित हो चुके हैं, और भी हो रहे हैं। ये सब अच्छी बात है, पर इन सबके बीच हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि भारत आज भी गाँवों का देश है और आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्र में निवास करता है। छ: लाख से अधिक गाँवों की गोद में भारत की साठ फीसदी से ज़्यादा जनसंख्या खेलती-कूदती है। चूँकि भारत की भौगोलिकता…

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जो हम भारतीयों को पश्चिम से सीखना चाहिए, लेख १ – साफ़-सफ़ाई

दुनिया में हर एक व्यक्ति गुणों व दोषों का सम्मिलित पुतला होता है। शायद ही ऐसा कोई हो जो हर दृष्टि से दोषरहित है, या जो हर दृष्टि से गुणरहित है। कहने का तात्पर्य ये है कि हम जैसे सामान्य इंसान के अन्दर गुण-दोष दोनों अलग-अलग अनुपात में रहते ही रहते हैं, और व्यक्ति का स्वयं के प्रति ये दायित्व होता है कि वो दुर्गुणों (दोषों) को कमतर करता चले।

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संस्कृति और महिलाओं की वर्तमान स्थिति

गार्गी, अपाला, घोषा, मैत्रेयी, सुलभा, यामी, विश्ववरा, रोमशा, मीरा, लल्ला, अक्का महादेवी इत्यादि-इत्यादि। बड़ी लम्बी सूची है; और अगर इस सूची में समाज सेविकाओं, स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगनाओं एवं राजनीति, खेल, साहित्य, कला, व्यापार, चिकित्सा, विज्ञान आदि के क्षेत्रों में ऊँचाइयाँ हासिल करने वाली महिलाओं के नाम जोड़ दिए जाएँ तो सूची और भी लम्बी हो जाएगी। परन्तु ये सूची कितनी ही लम्बी हो जाए, उन महिलाओं की सूची के सामने कुछ भी नहीं है जिन्हें समाज में दबाकर रखा गया, अशिक्षित रखा गया, तमाम आधारभूत अधिकारों से वंचित रखा गया, दहेज के लिए प्रताणित किया गया, जीवन में बेहतरी…

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मुखौटा

दुनिया में सबसे आसान काम जो हम सब लगातार कर रहे होते हैं वो है लोगों के सामने अपनी एक नकली (खुशी से छलछलाती) छवि प्रदर्शित करना; और कठिनतम कामों में से जो है वो है ये जान पाना कि ये दिखावा दुनिया के साथ नहीं, वरन् स्वयं के साथ धोखा देना है। किसी ग़ज़ल की पंक्तियाँ हैं - \"तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो\", उसी तरह एक और है - \"हँसो आज इतना कि इस शोर में, सदा सिसकियों की सुनायी न दे\"। यही बात प्रसिद्ध मनोचिकित्सक (Psychoanalyst) Alfred Adler की Adlerian…

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राजनीति, लोकतन्त्र और आम जन

देश में राजनैतिक दलों की राजनीति का स्तर कभी भी अच्छा नहीं रहा, पर अब ये जिस स्तर पर गिरता जा रहा है, उसकी कोई इन्तहाँ ही नहीं। आदर्श स्थिति तो ये है कि जो वास्तविक और महत्व के मुद्दे हैं, उन पर बहसे हो, गठबन्धन बने, गठबन्धन टूटे और फिर उन्हीं मुद्दे के आधार पर वोट डाले जाएँ। उससे निचला स्तर है कि दो कौड़ी के मुद्दों पर सारी बहस हो और लोग वोट भी उसी आधार पर दें, और फिर आता है घटिया स्तर जिसमें मुद्दे कुछ नहीं हैं, बस तुम पिछड़े हो, दलित हो या किसी और…

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जलवायु परिवर्तन — मुद्दा जन-जन का

ये न राजनैतिक समस्या है, न धार्मिक समस्या है, न ही किसी विशिष्ट विचारधारा का मुद्दा है, ये मनुष्यों और अन्य सभी जीवों के लिए अस्तित्वगत समस्या है। ये स्पष्टीकरण शुरुआत में इसीलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि मुद्दे को देखने से पहले यही देखा जाता है कि ये किस राजनैतिक या धार्मिक धारा के पक्ष में है या किस तरह की विचारधारा के विरोध में। राजनीति, (तथाकथित) धर्म, संकुचित राष्ट्रवादिता, जातीयता, आर्थिक स्थिति और न जाने कितनी अन्य विभाजनकारी दीवारें समाज में इस कदर घर कर गयीं हैं कि कोई भी मुद्दा या उसकी प्रासंगिकता इन्हीं दीवारों में कैद…

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दो परिवार, और सारा संसार

बाकी दुनिया के सम्पर्क से थोड़ा दूर ज़रूर था वो पूरा इलाका, परन्तु ज़रूरत की हर चीज़ वहाँ मौजूद थी। पहाड़ों की सुरम्य घाटियों के मध्य नदी की धार कुछ ऐसे बहा करती थी जैसे की चोटी पर सरसराती पवन।हर किसी की प्यास अपनी तृप्ति नदी के शीतल जल में पाती और मन की तृप्ति पहाड़ के वनों एवम् वहाँ के निवासी अर्थात् जानवरों के साथ एकान्त वार्तालाप में व जीवन के अवलोकन में। घाटी के एक तरफ़ सिर्फ़ तीन सदस्यों का एक परिवार था, जो पूरी तरह से अपने आसपास की प्राकृतिक व्यवस्था के साथ सामंजस्य के साथ रहता…

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