गार्गी, अपाला, घोषा, मैत्रेयी, सुलभा, यामी, विश्ववरा, रोमशा, मीरा, लल्ला, अक्का महादेवी इत्यादि-इत्यादि। बड़ी लम्बी सूची है; और अगर इस सूची में समाज सेविकाओं, स्वतन्त्रता संग्राम की वीरांगनाओं एवं राजनीति, खेल, साहित्य, कला, व्यापार, चिकित्सा, विज्ञान आदि के क्षेत्रों में ऊँचाइयाँ हासिल करने वाली महिलाओं के नाम जोड़ दिए जाएँ तो सूची और भी लम्बी हो जाएगी। परन्तु ये सूची कितनी ही लम्बी हो जाए, उन महिलाओं की सूची के सामने कुछ भी नहीं है जिन्हें समाज में दबाकर रखा गया, अशिक्षित रखा गया, तमाम आधारभूत अधिकारों से वंचित रखा गया, दहेज के लिए प्रताणित किया गया, जीवन में बेहतरी की ओर बढ़ने से रोका गया और कइयों को तो सिर्फ़ इसीलिए मार दिया गया क्योंकि उनकी देह स्त्रीदेह थी।
इसमें भी विडम्बना की बात तो ये है कि ये सब धर्म और भारतीय संस्कृति के नाम पर आज भी होता आ रहा है।
पर –
1. क्या भारतीय संस्कृति लिंग के आधार पर शोषण करने की समर्थक हो सकती है?
2. क्या भारतीय संस्कृति गर्भ में या जन्मते ही बच्ची की हत्या करने की अनुमति दे सकती है?
3. क्या भारतीय संस्कृति किसी इंसान को पैर की जूती जैसा समझने की वकालत कर सकती है?
4. क्या भारतीय संस्कृति किसी वयस्क इंसान का जीवन भर के लिए दुर्बल और दूसरे पर मजबूरन आश्रित बने रहने को सही ठहरा सकती है?
5. क्या भारतीय संस्कृति दहेज जैसी कुप्रथा और उसके लिए किसी को जिन्दा जला देने को उचित ठहरा सकती है?
6. क्या भारतीय संस्कृति एक युवा मनुष्य को विशिष्ट पोशाक में मजबूरन छुपे रहने का रिवाज बना सकती है?
7. क्या भारतीय संस्कृति बुद्धि को खूँटे पर टाँगकर तमाम तरह के ऊल-जलूल अन्धविश्वासों में फँसे रहने को धर्म का नाम दे सकती है?
नहीं, नहीं, नहीं, सौ बार नहीं, वैदिक भारतीय संस्कृति कभी ऐसा नहीं कर सकती। पर हमारे समाज में तो आज भी यही सब चल रहा है। इसका तो एक ही मतलब हो सकता है कि भारतीय संस्कृति के नाम पर समाज बहुत ही घटिया चीज़ को पकड़कर चलता आ रहा है। इसीलिए ये बड़ी राहत बात है है कि वो घटिया चीज़ कभी भारतीय संस्कृति थी ही नहीं, इसीलिए उसे तत्काल त्यागने में वास्तविक भारतीय संस्कृति का ज़रा भी अपमान नहीं है। और अगर किसी को लगता है कि ये सब भारतीय संस्कृति ही है, तो वो वैदिक भारतीय संस्कृति से पूरी तरह अनभिज्ञ है और इसी कारण प्रचलित परम्पराओं व कुरीतियों को ही भारतीय संस्कृति कह रहा है। ज़रूर ऐसा करने में उसका कोई-न-कोई स्वार्थ छिपा है, भले ही वो खुद इस बात को न जानता हो।
भारतीय संस्कृति तो वो है जो वेदों के मर्म अर्थात् वेदान्त सम्मत् है और जिसमें किसी के भी और किसी भी तरह के शोषण की कोई गुंजाइश ही नहीं है, क्योंकि उस संस्कृति का सबसे बड़ा आदर्श ही (हर तरह के भीतरी व बाहरी बन्धनों से) मुक्ति है, और वही जीवन का लक्ष्य भी है। जिस संस्कृति का उद्देश्य ही मुक्ति हो, वो भला किसी एक व्यक्ति को किसी दूसरे व्यक्ति का शोषण करने की अनुमति दे सकती है? नहीं दे सकती। और न ही वो वैदिक धर्म इन सबको वैध ठहरा सकता है जो अष्टावक्र गीता में अपनी उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है। अर्थात् समाज की ऐसी सारी व्याधियों का न वैदिक धर्म से कुछ लेना देना है, और न ही इनको ढोना भारतीय संस्कृति है।
ये अलग बात है कि पुरानी पीढ़ी अपनी ऐसी सारी करतूतों को भारतीय संस्कृति और धर्म कहने की इतनी आदी हो चुकी है कि उनके लिए असली भारतीय संस्कृति को समझना व स्वीकार करना थोड़ी मुश्किल है, परन्तु नयी पीढ़ी से तो ये आशा की ही जा सकती है कि वो समाज की ऐसी सारी बीमारियों को न महिमामंडित करें और न ही उन्हें कन्धे पर लादकर समाज का और पतन करें। और निसन्देह गर्व करें भारतीय संस्कृति के उस असली स्वरूप पर जो बोध, ज्ञान व जिज्ञासा पर आधारित है, जो सभी जीवों के प्रति करुणा की पक्षधर है और जीवन की उच्चतम सम्भावना की ओर लगातार बढ़ते रहना जिसका आदर्श है। पर उस गर्व करने का और कोई तरीका हो ही नहीं सकता सिवाय इसके कि पहले तो उसकी महानता को समझा जाए और फिर उसकी खातिर वर्तमान समाज में व्याप्त उस सारे गन्दगी को साफ़ किया जाए जो एक तरफ़ तो समाज में काल्पनिक विभाजन कर शोषण करने वाली थी और दूसरी तरफ भारतीय संस्कृति का नाम लेकर समाज पर छायी हुयी थी।
भारतीय संस्कृति सचमुच महान है, बस इतिहास की धारा में हमने भारतीय संस्कृति को छोड़ कुछ और ही पकड़ लिया था जो देश और समाज का सदियों से बड़ा नुकसान करती आ रही है। और उस नुकसान की भागीदार सिर्फ़ महिलाएँ ही नहीं रहीं, बल्कि ऐसी पूरी व्यवस्था में पुरुषों का जीवन भी नर्कमय हुआ है। और समाज की इन कुरीतियों की सफाई करना कोई आज के \’लिबरल\’ लोगों की बपौती नहीं है, ये वही काम है जिसे उपनिषदों के ऋषि, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर स्वामी, आदि शंकराचार्य, सन्त कबीर से लेकर राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानन्द, डॉ. भीमराव अम्बेडकर आदि सदा से करते आए हैं।
वैसे तो ये सारी सामाजिक बुराइयाँ शहरी और ग्रामीण दोनों जगहों पर प्रचुरता में फैली हुयीं हैं, और अगर शहरों में थोड़ी कम भी हो तो ये नहीं भूलना चाहिए कि आज भी भारत की बहुत बड़ी आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है। और ग्रामीण क्षेत्र की हकीकत जानने के लिए तो समाचार देखने की भी ज़रूरत नहीं है, अपने घर व गाँव की स्थिति को देख लेना ही काफ़ी है। और उसे देखकर ये स्पष्ट हो जाता है कि इन कुरीतियों का उन्मूलन आज की ज़रूरत ही नहीं, वरन् अनिवार्यता है। नहीं तो पता नहीं ये कितनों का जीवन लील लेंगी और कितनों को बेहोशी के नशे से तबाह कर देंगी।
image source: https://medium.com/@aresynshaw.work/the-stories-of-rishikas-2652295861f3