देश में राजनैतिक दलों की राजनीति का स्तर कभी भी अच्छा नहीं रहा, पर अब ये जिस स्तर पर गिरता जा रहा है, उसकी कोई इन्तहाँ ही नहीं।
आदर्श स्थिति तो ये है कि जो वास्तविक और महत्व के मुद्दे हैं, उन पर बहसे हो, गठबन्धन बने, गठबन्धन टूटे और फिर उन्हीं मुद्दे के आधार पर वोट डाले जाएँ। उससे निचला स्तर है कि दो कौड़ी के मुद्दों पर सारी बहस हो और लोग वोट भी उसी आधार पर दें, और फिर आता है घटिया स्तर जिसमें मुद्दे कुछ नहीं हैं, बस तुम पिछड़े हो, दलित हो या किसी और सामाजिक धारा के हो तो हम गठबन्धन बना लेते हैं। मतलब कुछ भी! कोई सार्थक मुद्दा ही नहीं है गठबन्धन जोड़ने या तोड़ने के पीछे।
जब हमारे देश में (उसमें भी मेरे उत्तर प्रदेश में) राजनेताओं की बौद्धिक क्षमता का ये स्तर हो, तब तो हो गया देश का कल्याण! ऐसा घटिया नेतृत्व देने वाले लोगों को नेता कहना भाषा में गाली जैसा है। किस दिशा में ले जाया जाएगा समाज को ऐसे निकृष्ट नेतृत्व से।
विडम्बना ये कि जिन वर्गों के नाम पर ये गठबन्धन बनाते हैं, सबसे ज़्यादा नुकसान उन्हीं का करते हैं। उदाहरण के लिए, पिछड़े वर्ग के नाम पर ये अपनी सारी राजनीति चमकाते हैं, तो क्या ये चाहेंगे कि पिछड़ा वर्ग अपना सब तरह का पिछड़पन छोड़ के बेहतर हो जाएँ? कदापि नहीं, क्योंकि जब तक पिछड़ा पिछड़ा बना हुआ है, तभी तक ऐसे सब राजनैतिक दलों की रोटियाँ सिकती हैं। इसीलिए अपने अस्तित्व के लिए ये ज़रूरी हो जाता है कि पिछड़ा पिछड़ा ही रहे और कहीं वो अपने पिछड़ेपन से मुक्त न हो जाए, बेहतर न हो जाए। नहीं तो पिछड़े वर्ग के मुद्दे बहस का मुद्दा होते न कि बस वर्ग का नाम।
यह बात राजनीति के वर्तमान स्वरूप पर लागू होती है जिसके अन्तर्गत सभी राजनैतिक दल और विचारधाराएँ आती हैं। अगर देश का आम जन जाग्रत हो जाए और अपने जीवन व समय को किसी सार्थक उद्देश्य में लगा दे, तो फिर उसके पास इन राजनेताओं की रैलियों में जाने और वहाँ सतही नारेबाजी का वक्त कहाँ ही रहेगा? इसीलिए राजनेताओं की भी जैसे ये मजबूरी है कि जनता को जाग्रत न होने दिया जाए अगर उन्हें खुद के अस्तित्व को सुरक्षित रखना है तो।

माना कि भारत जैसा विशाल देश जहाँ हर तरह की विविधता विद्यमान है, वहाँ अलग-अलग वर्ग की समस्याओं का स्वरूप अलग-अलग हो सकता है, परन्तु फिर भी चुनावी मुद्दा वो समस्या हो, न की वर्ग का ही नाम। और भला जब एक वर्ग की कोई विशेष समस्या है, तो ये बात अन्य सभी वर्गों के लिए महत्व की क्यों नहीं है? देश के लोगों से सम्बन्धित कोई भी मुद्दा सभी राजनैतिक दलों के लिए महत्व का मुद्दा कैसे नहीं है? हाँ, ये तभी हो सकता है जब दलों और (कथाकथित) नेताओं को न मुद्दे से कोई लेना-देना हो, न उसे सुलझाने से, लेना-देना हो तो बस अपनी राजनीति चमकाने से। ये अलग बात है कि ये जनता के सामने जनता के शुभेच्छु की छवि प्रस्तुत करते हैं। ऐसा न होता तो शरद जोशी जी को \’जिसके हम मामा\’ लिखने के लिए शब्द न मिलते। ऐसे नेताओं को अगर पिछड़े वर्ग की चिन्ता होती तो ये यह भी जानते कि उत्तर प्रदेश में अधिकांश पिछड़े वर्ग के लोग किसान हैं और किसानों के सामने सबसे बड़ी समस्या बेमौसम बारिश, सूखे की मार है जो जलवायु-परिवर्तन के विनाशकारी प्रभावों के कारण हर दिन बद-से-बदतर होती जा रही है। अब इन राजनेताओं को पिछड़ा वर्ग के हित में जलवायु-परिवर्तन की चुनौती से निपटने पर तो दो शब्द बोलते नहीं सुना।
इन सबके बीच अच्छी खबर बस ये है कि आज की स्थिति जैसी भी हो, इसका ऐसा ही बने रहना इसकी नियति नहीं है, स्थिति बदल सकती, सुधर सकती है, सुधरनी ही चाहिए। अच्छा होगा कि उसकी शुरुआत जनता जागरण से हो, नेता जागरण से शुरुआत होने में भी कोई बुराई नहीं, बस उसकी सम्भावना कम होती है, क्योंकि नेता जनता के विरुद्ध एक शब्द बोलने की हिम्मत नहीं कर सकता फिर चाहे जनता तमाम तरह के अन्धविश्वासों, अज्ञान व बुराइयों से ही क्यों न भरी हुयी हो। और अगर जनता और नेता, दोनों छोरों से जागरण हो जाए तब तो कहना ही क्या। उस दिन हम लोकतन्त्र की महानता का डंका सही अर्थों में बजा सकते हैं। और इनमें से कुछ भी न हो तो फिर जनता चाहे इसको चुने या उसको, जनता वैसी ही रहेगी और जब जनता की स्थिति (भीतरी और बाहरी) दोनों निकृष्ट कोटि की होगी तो वही स्थिति तो देश की भी होगी।
स्थिति के बुरे होने में उतनी बुराई नहीं है, बुराई तो तब है जब स्थिति ठीक हो सकती थी, फिर भी बुरी बनी रही; ये बहुत बुरी बात है!

राजनीति अपनेआप में कोई बुरी बात नहीं है और न ही ऐसा ही है कि इतिहास में साफ राजनीति करने वाले कभी रहे। हाँ, बहुत कम रहे हैं, पर असम्भव स्थिति नहीं है। इसीलिए जनता और नेता दोनों की ही वास्तविक भलाई क्षुद्र मुद्दे से उठकर जीवन, समाज और देश के लिए जो सच में महत्व के मुद्दे हैं, राजनीति के आधार का सम्बन्ध उनसे जोड़ने में है। नहीं तो सिर्फ़ वोट डालने का अधिकार होने मात्र से न लोकतन्त्र आ जाता है और न ही लोकतन्त्र की महानता सिद्ध हो जाती है। वोट डालने वाले के पास इतनी समझ भी तो होनी चाहिए कि वो क्षुद्र और मसालेदार मुद्दों से उठकर वास्तविक मुद्दों की ओर चुनाव की दिशा मोड़े और उसी आधार पर मतदान करे।
कदाचित् लोकतन्त्र की परिभाषा में भी समय की माँग पर थोड़ा संशाधन किया जाना चाहिए — “जाग्रत लोगों का, जाग्रत लोगों के द्वारा, जाग्रत लोगों और समस्त प्राणियों की बेहतरी के लिए शासन ही लोकतन्त्र है।”
अन्त में जैसा की दु्ष्यन्त कुमार जी ने कहा है —
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
PS: अपवाद सब जगह होते हैं, इसीलिए जो नेता और जनता साफ राजनीति के माध्यम से समाज व देश के उत्थान में कार्यरत हैं वो आलोचना नहीं, बधाई के पात्र हैं।
PS: पिछड़े वर्ग के किसान परिवार से सम्बन्धित होने के कारण उनकी स्थिति से थोड़ा-बहुत परिचित हूँ।