सामान्यतया जब भी किसी देश के ऊपर आए खतरों की बात होती है तो पहला विचार किसी दुश्मन देश से सीमा पर होने वाले खतरे का ही आता है। भारत के विषय में भी हम यही सोचेगे कि भारत को खतरा सीमा पार से है। यद्यपि वो बात सही भी है कि सीमा पार से खतरा है और उससे निपटने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाने चाहिए सरकार द्वारा और आम नागरिकों द्वारा भी। परंतु अगर थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो पता चलेगा कि और भी ऐसे खतरे हैं जो सीमा पार वाले खतरों से ज़रा भी कम घातक नहीं हैं।
उन्हीं में से एक जो खतरा है वो है देश की एक बड़ी आबादी का अशिक्षित रह जाना। जैसे किसी आदमी की रोगों से लड़ने क्षमता एकदम नष्ट हो गई हो, रोग-प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो गई हो, तो देर-सबेर कोई न कोई जीवाणु, विषाणु बाहर से आकर उस व्यक्ति को रोगग्रस्त कर ही देगा, वैसे ही अगर देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा अशिक्षित रह गया, तो देश तो कमज़ोर होगा-ही-होगा हर मामले में, फिर चाहे वो बात आर्थिक स्थिति की हो, सामाजिक स्थिति की, स्वास्थ्य के स्तर की, जनसामान्य के सशक्तिकरण की या अन्य किसी भी क्षेत्र की।

गौर से देखिए इन तस्वीरों को, ये हाल ही में किए गए विभिन्न गाँवों के भ्रमण के दौरान की हैं। इनमें आप जिन बच्चों को देख रहे हैं, वो आठवीं, नवीं कक्षाओं के छात्र हैं। और जो बात मैं अब बताने जा रहा हूँ वो जानकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएँगे। इन छात्रों/छात्राओं को अपनी मातृभाषा (हिंदी) के एकदम साधारण शब्दों को भी ठीक से पढ़ना नहीं आता – ये है भारत के सामने सबसे बड़ा खतरा।
एक तरफ तो ये बात पूरी तरह से सही है कि पढ़े-लिखे और डिग्रीधारकों को भी करने के लिए उचित रोजगार नहीं मिल रहा है। कभी इक्का-दुक्का निकलने वाली सरकारी भर्तियाँ धाँधली, भ्रष्टाचार, पेपर लीक, कोर्ट केस आदि में उलझकर रह जाती हैं, तो निजी क्षेत्र में भी उतनी भर्तियाँ नहीं होतीं जितने लोग रोजगार की तलाश में हैं। और कई बार तो निजी क्षेत्रों में वांछित योग्यता के आवेदक न मिलने के कारण कई पद खाली पड़े रहते हैं।
तो बेरोजगारी अपनेआप में बहुत बड़ी समस्या है और भारत जैसा युवा आबादी वाले देश के लिए तो ये समस्या और भी गंभीर स्थिति की ओर इशारा करती है। पर पढ़े-लिखो की बेरोजगारी की बात को लेकर इस बात को सही साबित नहीं किया जा सकता कि आठवी-नवीं कक्षा के बच्चे हिंदी के साधारण शब्द भी नहीं पढ़ पा रहे तो क्या हो गया, कौनसा पढ़ लेते तो उन्हें नौकरी मिल जानी थी, डिग्री वाले तो बेरोजगार भटक रहे हैं इत्यादि, इत्यादि। इस तरह के तर्क न केवल घातक हैं, बल्कि समस्या को और ज़्यादा विकट बना देते हैं।
बेरोजगारी अगर बहुत बड़ी समस्या है, जो कि है ही, तो ये उससे भी बड़ी समस्या है कि हमारे स्कूलों के बच्चे सच में शिक्षित हो भी रहे हैं या नहीं। ASER की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 14-18 वर्ष वाले बहुत सारे बच्चे जोड़-घटाना जैसी सामान्य गणनाएँ करने और अपनी स्थानीय भाषा पढ़ पाने में असमर्थ हैं। उसी का नमूना इस तस्वीरों में निहित है जो मुझे गावों में देखने को मिलता ही रहता है। शहरों में भी बहुत सारे बच्चों की यही स्थिति है जिसे मैंने पुणे, बेंगलुरु, भोपाल इत्यादि शहरों में खूब देखा है।
और ये सिर्फ़ शिक्षा-व्यवस्था की बात नहीं है। वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में बेशक कई खोटे हैं (जिन पर अलग से चर्चा होनी चाहिए), पर बच्चों की इस हालत का कारण मात्र हमारी रुग्ण शिक्षा-व्यवस्था नहीं है, हमारी पारिवारिक व्यवस्था भी है। तस्वीर में जो बच्चियाँ हिंदी के शब्द नहीं पढ़ पा रहीं – मुझे नौवीं कक्षा की छात्रा को कक्षा एक की किताबें देनी पड़ी ताकि पहले वो पढ़ना तो सीख पाएँ – उसका एक कारण ये भी है कि उन्हें सीखने में कोई खास रुचि ही नहीं है, क्योंकि शिक्षित होने के महत्व को कभी इन्हें समझाया ही नहीं गया। घर-परिवार में सारी सीख बस इस बात की दी गई है कि चूल्हा-चौका करना आना चाहिए बस, क्योंकि जल्दी से \’पराए\’ घर जाना है और वहाँ यही सब काम आएँगे। चूल्हा-चौका करना कोई बुरी बात भले न हो, पर ऐसे मूल्यों के कारण बच्चियों को शिक्षा से दूर कर देना अपराध है और इसके अपराधी माँ-बाप अकेले नहीं हैं, पूरा समाज है, पूरी सामाजिक व्यवस्था, समाज की पूरी मूल्य व्यवस्था है। और यह एकदम वही बात है जब कोई कहे कि अब तो नौकरी लग गई, अब किताबें पढ़कर क्या करेंगे।
नेताओं के विकास के दावों और ऊँची-ऊँची बातों को एक तरफ रखकर हमें धरातल की हकीकत को पहले तो स्वीकारना होगा और फिर उसके लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे, और उसकी शुरुआत स्वयं को सही अर्थों में शिक्षित करने के प्रयास से करनी होगी। और सही अर्थों में शिक्षित होने का अर्थ है समग्र शिक्षा जिसके दो पहलू होते हैं – पहला, बाहरी पक्ष जिसमें विज्ञान व अन्य सभी बाहरी विषयों आदि का ज्ञान आता है; दूसरा, आंतरिक पक्ष जिसमें मन, मन की वृत्तियों और जीवन के मूल मुद्दों की शिक्षा आती है।
शास्त्रीय रूप से बाहरी जगत के विज्ञान को अविद्या और भीतरी जगत यानि कि मन के विज्ञान को विद्या कहा जाता है। विद्या और अविद्या दोनों एक साथ देने वाली शिक्षा-व्यवस्था ही एकमात्र प्रभावी उपाय है व्यक्ति के उत्थान का और देश के भी उत्थान, मजबूती और तरक्की का। और व्यक्ति व देश का उत्थान इतना महत्वपूर्ण है कि उसके लिए अगर देश की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, पारिवारिक व्यवस्था के साथ-साथ हमें अपनी व्यक्तिगत मूल्य-व्यवस्था बदलनी पड़े, सुधारनी पड़े तो उसका प्रयास अवश्य किया जाना चाहिए।
इसीलिए जो लोग सक्षम हैं, समर्थ हैं, उनकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। आज की परिस्थितियों में वो ये नहीं कह सकते कि हमारे तो बस दो बच्चे हैं और मात्र उनकी जिम्मेदारी उठाना ही हमारा कर्तव्य है। याद रखिए कि एक परिवार किसी वीराने में नहीं पाया जाता, वो भी इसी समाज का हिस्सा होता है और इसीलिए उसके प्रति उत्तरदायी होता है। और इसमें आपके परिवार का भी हित निहित है क्योंकि अगर आपके पड़ोस का बच्चा अशिक्षित रह गया, नशे का शिकार हो गया तो कल को वही या उसके जैसे अन्य लोग समाज में हत्या, चोरी व अन्य तमाम अपराधिक गतिविधियों की दलदल में गिर सकते हैं और फिर उनका घटनाओं का शिकार कोई भी हो सकता है।
समाज का हित और व्यक्ति का हित दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हो सकतीं। तो एक तरफ तो समाज में व्याप्त बुराइयों से खुद को बचाना है, ऊपर उठाए रखना है, पर दूसरी तरफ उन बीमारियों से अन्य लोगों को भी बचाने का, ऊपर उठाने का प्रयत्न करना है। क्योंकि समाज उठेगा तो साथ उठेगा और अगर साथ नहीं उठेगा, तो उसके दुष्परिणाम किसी-न-किसी रूप में सबको भुगतने पड़ेगे। इसीलिए हमारा हित इसी में है कि हम मुंशी प्रेमचंद जी की बात – \’ताकत आती है तो उसके साथ जिम्मेदारी भी आती है\’ – को याद रखे और अपने कर्तव्यों को विस्तार दें
ये बात भी ठीक है कि हर कोई अपने-अपने व्यक्तिगत मसलों में इतना उलझा है कि उसके पास उन मसलों से आगे कुछ और सोचने का न समय बचता है, न ऊर्जा। पर वो मसले तो चलते ही रहेगे, एक सुलझेगा तो दूसरा खड़ा हो जाएगा। और अगर हज़ार साल की भी उम्र हो तब भी वो कभी खत्म नहीं होगे। तो ज़रूरी है कि उन मसलों से थोड़ा-बहुत समय चुराकर उन मसलों के चिंतन-मनन पर लगाया जाए जिनके व्यापक परिणाम हैं। क्योंकि समाज एक जीवंत इकाई होता है, जिसका हर हिस्सा एक-दूसरे से जुड़ा होता है, इसीलिए एक-दूसरे को प्रभावित करता है। अत: आवश्यक है कि जो कोई भी अपना हित चाहता हो, उसे अपने जीवन के समय, संसाधन व ऊर्जा के एक छोटे से हिस्से को ही सही, उस जगह लगाना तो होगा जिसमें सबका कल्याण निहित है।