कुछ दिनों पहले मुझे अनेक गाँवों में जाने और वहाँ के लोगों से बात करने का अवसर मिला। वो सारे लोग जो गुटखा, तंबाकू या अन्य नशों के शिकार हैं, जब उनसे बात की तो उनकी व्यथा कुछ इस प्रकार थी, ‘हाँ, हम भी इतना तो जानते हैं कि इससे मेरा नुकसान है, पर अब क्या करें! आदत पड़ गई है जो छूटती ही नहीं।’ यद्यपि ये बात भी वो पूछने पर ही कह पाए, नहीं तो तंबाकू, गुटखा जैसे रोटी-पानी हो गया है जिसे खाना सामान्य बात है, ज़रूरी बात है। जब उनकी इस ‘सामान्य’ बात के सामने एक सवाल खड़ा किया गया, तो एक क्षण को सोचने के बाद ज़्यादातर लोगों ने स्वीकारा की हाँ, ये एक हानिकारक लत है जो उन्हें अब लग चुकी है।
ये बात न सिर्फ़ नशे के संदर्भ में सही है, बल्कि हमारे सामान्य, रोजमर्रा के जीवन के लिए भी लागू होती है। अधिकांश हमारी गतिविधियाँ भी एक तरह की लत हैं जो सवाल न उठाए जाने के कारण सामान्य प्रतीत होती हैं और ज़िंदगी में दीमक की तरह चिपककर उसे खोखला करती रहती हैं। पर अभी बात उन स्थूल नशों की हो रही है जो एकदम स्पष्ट रूप में हमारे सामने हैं तथा अनगिनत लोग जिसकी गिरफ़्त में हैं।
सोशल मीडिया के जमाने में गुटखा, तंबाकू व तमाम तरह के जुए को (खेल के नाम पर) प्रोत्साहन देने की बाढ़ ही आ गई है जिसमें देश के तथाकथित बड़े-बड़े सेलिब्रिटी लोग आ-आकर लोगों को नशे में डूब जाने व जुए से मिनटों में बेहिसाब संपत्ति पा जाने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं। जैसे किसी भटके हुए व्यक्ति को कोई जानबूझकर गलत राह बता दे और फिर उसे लूट ले, ठीक वही अपराध हमारे ये तथाकथित सेलिब्रिटी लोग कर रहे हैं आम आदमी को नशे और जुए की इस दलदल में धकेलकर।
ये तर्क मूर्खतापूर्ण है कि गुटखे पर कैंसर की चेतावनी होती है। भला हमारी जो शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था सातवी-आठवी कक्षा के बच्चों को सामान्य गणनाएँ करने की भी सीख नहीं दे पाती, वो व्यवस्था विवेक की, जीवन में सही-गलत देख और चुन पाने की शक्ति दे सकती है? अगर देती होती तो ये ज़हर हर मुँह और कोनों को लाल और परिवारों को तबाह नहीं कर रहा होता।
और क्या ये सेलिब्रिटी सच में इतने मूरख हैं कि ये भी नहीं जानते कि उनके कहने से करोड़ों परिवार बर्बाद होते हैं? क्या उन्हें सच में लगता है कि चेतावनी छाप देने से कोई जहर नहीं खाएगा या नशे में नहीं डूब जाएगा। चेतावनी छाप देना तो बस कानून और अदालतों को गुमराह करने के लिए होता है ताकि बर्बादी का ये कार्यक्रम ‘कानूनी’ रूप से चलता रहे। और अगर इन सेलिब्रिटीज को सुनकर सच में लोग तबाह न हो रहे होते तो इस तरह की सामग्री की निर्माता कंपनियाँ इन्हें करोंड़ो रुपए नहीं दे रहीं होते इस तबाही को जारी रखने के लिए। किसी का व्यक्तिगत तौर पर स्वयं नशे का सेवन फिर भी एक बात है, पर जनता में अपनी पहचान और प्रभाव का इस्तेमाल उसी जनता की बर्बादी के लिए करना बहुत ही घटिया स्तर की हरकत है।
आँकड़ों की माने तो पिछले कुछ वर्षों में नशे के शिकार युवाओं की संख्या में भारी उछाल आया है। खबरों में लगातार ही तरह-तरह के नशीले पदार्थों की तस्करी की खबरें किसी से छुपी नहीं हैं। साथ-ही-साथ सट्टेबाज़ी और जुए में बर्बाद लोगों की रोती हुईं वीडियो सोशल-मीडिया पर आए दिन वायरल होती रहती हैं। शराब के नशे में अनेक घिनौने अपराध भी हुए हैं और आज भी लगातार हो रहे हैं, जिससे पूरे देश को शर्मसार होना पड़ता है। गाँव-गाँव की गली-गली में तंबाकू-गुटखा व शराब की नत से अधमरा सा जीवन जी रहे लोगों की स्थिति की तो अब खबरें भी नहीं आती, क्योंकि उसे तो सामान्य ही मान लिया गया है। और ये कोई अतिश्योक्ति नहीं की जा रही है, ये वो तथ्य है जो हमारे सामने है, भले ही हम उससे अनभिज्ञ हों, या उससे मुँह मोड़ रहे हो।
गाँव की गलियों की बात की तो उससे ये मत समझ लीजिएगा की बेरोजगारी की वजह से गाँव के लोग नशे की ओर चले जाते हैं, नहीं सिर्फ़ बेरोजगारी का तो ये परिणाम नहीं लगता, क्योंकि देश के बड़े शहरों में कामकाज़ी जवान पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा भी अपनी शामें और सप्ताहांत उन नशीले मादक पदार्थों की उत्तेजना में बिताता है जिनके तो आपने नाम भी नहीं सुने होंगे। कहीं कम तो कहीं कल्पना से भी अधिक – पर ये वायरस अनेक रूपों में फैला सब जगह हुआ है
कानून और अदालतों में ये दलील चल जाएगी कि चेतावनी छापी तो थी जहर के साथ, पर अगर उत्पादकों की नीयत ही ये होती कि लोग चेतावनी पढ़कर इसे न खाएँ तो क्या ये जहर का उत्पादन करते और क्या ‘सेलिब्रिटी’ से उसका प्रचार कराते? मतलब सीधा है, नीयत तो लोगों को जीते-जी मारने की है, पर उसके लिए कानूनी रास्ते निकालने के लिए कहने को कैंसर ग्रस्त फेफड़ों की तस्वीरें छाप दी जाती हैं। फिर कह रहा हूँ, अगर खाने वालों का स्तर ऐसा होता कि चेतावनी पढ़कर स्वयं न खाएँ तो क्या मुँह के दाँत पीले और देश के कोने लाल होतें? और इससे हमें ये भी पता चलता है कि देश की कानून व्यवस्था भी शायद यही कहती है कि जो भी बर्बादी के कार्यक्रम करना है वो करो, पर उसे ‘कानूनी’ तरीके से करो। क्योंकि ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है कि देश की कानूनी व्यवस्था चलाने वालों को नशे से हो रही बर्बादी की ज़रा भी खबर न हो।
फिर ये सेलिब्रिटी ऐसे नाटक करते हैं जैसे इन्हें बहुत फिक्र है लोगों की। सेलिब्रिटीज द्वारा किए जा रहे प्रचार के चलते जो हाल देश के लाखों-करोंड़ो युवाओं का हो चुका है, उसके सामने किसी सेलिब्रिटी का कुछ रुपए दान कर देना या उन्हीं बेबस युवाओं के उपचार के लिए कैंसर का अस्पताल खुलवा देना वास्तविक नुकसान की क्षतिपूर्ति कदापि नहीं कर सकता। ये तो ऐसा ही है जैसे कोई किसी मासूम को जीवन भर के लिए अपंग करके दो-चार दिन का खाना मुफ्त में खिला दे।
यद्यपि इन लोगों का बहुत बड़ा और घातक योगदान है इस महामारी को सब ओर फैलाने में, पर यहाँ बात का उद्देश्य उन पर समस्या के कारण का दोषारोपण कर भीतर-ही-भीतर खुद को क्लीन चिट देने का नहीं है, क्योंकि ये सेलिब्रिटी भी उसी समाज ने बनाए हैं जिसका हिस्सा हम सब है। बात ये है समाज का स्तर ही अगर ऐसा है जिसमें कोई भी कुएँ में गिरने की बात कहता है और करोंड़ों की भीड़ कुएँ में कूदने लगती है, तो स्थिति बहुत गंभीर है। और अगर समाज का स्तर ऐसा है तो क्या ऐसे समाज में सिर्फ़ भेड़ चाल चल देने की यही एक बीमारी होगी? नहीं, क्योंकि कोई भी सामाजिक बीमारी एकांत में, आइसोलेशन में नहीं पनप सकती। ज़रूर और भी बहुत बीमारियों से ग्रसित होगा ऐसा समाज। और समाज से आशय किसी दूर की चीज़ से नहीं है, समाज माने हम, हमारे आसपास के वो सब लोग जिनके साथ हमारा उठना-बैठना है, जिनसे हम किसी न रूप में जुड़े हुए हैं। तो क्या हम और आप (जो इन नशे को दलदल में नहीं भी गिरे), अन्य उन बीमारियों से सुरक्षित हैं जो समाज में व्याप्त हैं? क्या हमारे बच्चे यानि की देश का भविष्य उन खतरों से सुरक्षित है?
बर्बादी का इस कामकाज को चलाए रखने के पीछे जो सामान्यत: एक तर्क दिया जाता है वो है पैसों का, जीडीपी का। कोई तुरंत कह देगा कि नशे के इस उद्योग का देश की जीडीपी में इतना-इतना योगदान है या आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल करके बनाए गए जुए के अड्डों का इतने-इतने करोंड़ों का व्यापार है। ये कितने मूर्खता का तर्क है! सारी आर्थिक तरक्की, जीडीपी में वृद्धि इसीलिए तो चाहिए होती है कि लोगों के जीवन सुधरें, बेहतर बनें; भला जो जीडीपी आधारित ही करोंड़ों ज़िंदगियों की बर्बादी पर है, ऐसी जीडीपी का औचित्य ही क्या है? क्या आप अपने जीवन का या अपने बच्चे के पूरे जीवन का सौदा कुछ रुपयों की खातिर कर सकते हैं? अगर आप अपने बच्चे के भविष्य का सौदा चंद रुपयों में नहीं कर सकते तो ये देश, हमारा प्यारा देश अपने करोंड़ो बच्चे-बच्चियों का भविष्य क्यों बेच रहा है? वो भी तब जब आर्थिक तरक्की के अन्य सम्यक और सार्थक माध्यम उपलब्ध हैं।
क्या हम सच में मानसिक व बौद्धिक रूप से पूरी तरह पंगु हो चुके हैं कि आर्थिक विकास और जीडीपी में वृद्धि के सम्यक रास्ते नहीं खोज पा रहे हैं? या हम जीडीपी बढ़ाने के चक्कर में इतने विक्षिप्त हो चुके हैं कि ज़िंदगियाँ तबाह करने वाले धंधों से ही सही, पर ‘तरक्की’ चाहिए।
मानव क्रियाकलाप की कोई भी गतिविधि जिसमें वस्तुओं और सेवाओं का लेनदेन होता है, उससे समाज की अर्थव्यवस्था खड़ी हो जाती है। जब ऐसा है तो क्यों नहीं हम उन वस्तुओं व सेवाओं का लेनदेन कर सकते हैं जो जीवन को बेहतर बनाने व ऊँचा उठाने का सामर्थ्य रखती हैं या हमने ज़िद ही ठान ली है नशे, जुए, जीवों की हत्या जैसे आत्मघाती कामों से ‘विकास’ करने की।
कोई भी व्यक्ति जिसे आज हम सेलिब्रिटी कहते हैं, वो भरे चौराहे पर खुलेआम मर्डर नहीं कर सकता, क्योंकि वो जानता है कि इसके कानूनी जो परिणाम होंगे सो होंगे, इससे वो आम जनता के बीच अपना सेलिब्रिटीपना खो देगा। पर यही सेलिब्रिटी करोड़ों लोगों को नशे और जुए के कुए में धकेलकर उन्हें मुर्दा से भी बदतर बना रहा है और तब भी आम जनता ऐसे लोगों को पलकों पर बैठाने के लिए होड़ कर रही है। ऐसे में कहना बहुत मुश्किल है कि ज़्यादा बड़ा अपराधी कौन है — सेलिब्रिटी लोग या आम लोग; क्योंकि अपराधी तो दोनों ही हैं। पर मेरी नज़र में तो ज़्यादा बड़ा अपराधी आम जन ही हैं क्योंकि ले-देकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार बर्बाद तो वही हुआ न। कोई बल्ला चलाकर या एक्टिंग करके सेलिब्रिटी बन गया हो और अब इसीलिए उसकी कोई भी बात जो मान ले जिसमें भले ही बर्बादी हो, ऐसी आम जनता निर्दोष कैसे हो सकती है। खिलाड़ी से खेल खेलना सीखा जा सकता है, अभिनेता से अभिनय सीखा जा सकता है, पर वो नशे या जुए के लिए आमंत्रित करे तो उसकी बात नहीं सुनी जा सकती। उल्टा उसे ये जताना होगा कि जो वो कर रहा है वो किसी अपराध से कम नहीं, तभी तो वो भी एक पल को सोचने को मजबूर होगा कि उसके आधे मिनट के विज्ञापन से लोगों की पूरी ज़िंदगी तबाह हो रही है। पर जो आम आदमी, खासकर युवा, उन्हें देवदूत समझ उनकी बात का अंधा अनुकरण अपनी ज़िंदगी बर्बाद करने लगे, तो वो स्वयं के ही प्रति बहुत बड़ा अपराधी हो गया।
इसीलिए ये पूरी चर्चा इस बात के बिना तो पूरी हो ही नहीं सकती कि नशे कि इस दलदल में धँसने वाला स्वयं कितना बेखबर है कि अपना हित-अनहित देखना छोड़ इन सेलब्रिटीज़ के कहने पर नशे और जुए के नरक में गिरता जा रहा है। ये बात ठीक है कि शिक्षा व्यवस्था ने विवेक नहीं सिखाया, ये भी सही है कि चारों तरफ के प्रभाव नशे की ओर ही धकेल रहे हैं, सामाजिक व्यवस्था और आंतरिक जीवन की गर्हित स्थिति भी नशे में डूब जाने को मजबूर कर रही है, पर तुम अगर अपनेआप को ज़िंदा कहते हो, जवान कहते हैं, इंसान कहते हो तो दिखाओ न दम! खड़े हो जाओ सीना चौड़ा करके और कहो, ‘सेलिब्रिटी कुछ कहते हों, समाज कुछ कहता हो, शरीर की वृत्तियाँ कुछ कहती हों, मजबूरियाँ कुछ कहती हों; मैं जवान हूँ और इसीलिए वो करूँगा जो सही है, वो नहीं जो आकर्षक लगता है। मैं जवान हूँ अगर तो चारों तरफ के विनाशकारी बहावों में बह नहीं जाऊँगा, उनकी हकीकत, उनके षड़यंत्र, उनकी क्षुद्रता को जानूँगा और फिर उनके समक्ष अडिग, अप्रभावित खड़ा रहूँगा। नहीं तो लानत है ऐसी जवानी पर जो बस फिसलना जानती है, कुप्रभावों के विरुद्ध खड़ा होना नहीं जानती।’
जो बस (कुप्रभावों में) बह जाए वो जवानी नहीं, मुर्दा लकड़ी है। जवानी की ताकत तो होनी ही इसीलिए चाहिए कि गलत को गलत जानकर उसे न कह पाए। कभी-कभार बह जाने को, पाँवों के डगमगा जाने को फिर भी समझा जा सकता है, पर जिसने कभी पाँव जमाए ही न हों, जिसको कीचड़ में लोटने में ही मजा आने लगा हो, जो गड्डे में गिरने को ही लालायित हो, उसके लिए क्या ही संभावना बची कीचड़ से बाहर निकलकर जवानी की ऊर्जा जीवन को निखारने वाले सार्थक उद्देश्यों में लगाने की!
और ऐसा कोई समय नहीं होता जब एक व्यक्ति पूर्ण हो गया हो या जिसे करने की अब कुछ ज़रूरत ही न बची हो। चाहे वो व्यक्तिगत जीवन हो या समाज, हर समय बहुत सारे ऐसे आवश्यक कर्म होते हैं जो किए ही जाने चाहिए और उनको करने में व्यक्ति की ऊर्जा, समय और संसाधन सब लगता है। तो ये भी कोई बहाना नहीं है कि कुछ नहीं था करने को, इसीलिए बर्बादी के नरक में जा गिरे।
समस्या ज़रूर विकराल है, पर यकीन मानिए समाधान बहुत सीधा है – गौर से खुद पर नज़र रखना और देखते रहना कि कौन-कौन से प्रभाव हावी हो रहे हैं, और फिर अधिकतम बुद्धि-विवेक का इस्तेमाल करके ही किसी प्रभाव को भीतर प्रवेश करने देना। बाकी के लिए – नो एंट्री। समाधान यद्यपि सुनने में सीधा हो, पर अगर आदतवश हमें सीधा चलना ही न आता हो तो? उस स्थिति में तो मेहनत हमें ही करनी पड़ेगी, साधना हमें ही करनी पड़ेगी अगर हमें ज़रा भी स्वयं से प्रेम हो तो, हमारे लिए जीवन का ज़रा भी मूल्य हो तो। वो मेहनत तो सबको स्वयं ही करनी पड़ेगी, कोई और आपके लिए वो काम नहीं कर सकता। भला किसी के खाना खा लेने से किसी और की भूख मिट सकती है? हाँ, इस प्रक्रिया में उनसे सहायता ज़रूर ली जा सकती है जिन्होंने जीवन को जाना है, समझा है और जिनकी जीवन की मिशालें समस्त नशों, समस्त बंधनों के खिलाफ़ संघर्ष के रूप में हमारे सामने प्रचुरता से उपलब्ध हैं।
सही बात है लेकिन लोग व लत से परेशान हैं