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पति, पत्नी, आत्महत्या और वो बात…

मनुष्य का दुनिया में आगमन एक संबंध के परिणामस्वरूप होता है। फिर उसकी परवरिश उन लोगों के बीच होती है जो किसी-न-किसी संबंध के कारण एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। इस तरह कहा जाए तो मनुष्य का पूरा जीवन संबंधों के नेटवर्क में इधर-से-उधर होते रहने की प्रक्रिया भर है। इन्हीं संबंधों के बीच ही इंसान निरंतर जी रहा होता है। हाँ, इस बीच कभी पारिवारिक संबंध प्रमुख स्थान ले लेते हैं, कभी सामाजिक, कभी राजनैतिक, कभी व्यावसायिक तो कभी कोई अन्य, पर इंसान रहता तो संबंध के बीच ही है। इसीलिए फिर संबंध से छुटकारा पाना न ही संभव है और न ही अनिवार्य रूप से ज़रूरी ही है। संबंध का होना ज़रूरी है, पर संबंध का जहरीला होना ज़रूरी नहीं है। पर अगर आस-पास का दृश्य ऐसा ही दिखाई दे रहा हो तो ये संबंधों की नियति नहीं है, ज़रूर कोई और बात है, कोई और भूल है जो हमसे हो रही है।

हालिया जो घटना बैंगलोर में घटित हुई वो बहुत ही दुखद है, पर ऐसी जब भी कोई सनसनीखेज घटना होती है हम हिल जाते हैं, और फिर दोबारा तब तक नहीं हिलते जब तक एक और सनसनीखेज घटना न घट जाए। घटनाओं के बीच की हमारी निष्क्रियता यही दिखलाती है कि हमें समस्या घटना के घट जाने भर से है, उस पूरी प्रक्रिया से नहीं जिसके फलस्वरूप वो घटना घटी। ये तो ऐसी सी ही बात है कि गरम पानी में आलू के उबलने मात्र से समस्या है, उस आग से नहीं जो उसको खौला रही है, न उस प्रक्रिया से जिससे आग लगातार जल रही है और पानी भरता जा रहा है। और ये कोई छिपी बात नहीं है कि आग तो अधिकांश घरों में यानि संबंधों में लगी ही हुई है (यद्यपि ये बात ज़्यादातर लोग स्वयं में ही स्वीकार करने के बजाय शब्दों के जाल के पीछे स्वयं से ही छुपाते हैं)। इसीलिए सनसनीखेज वारदातों का होना जितना गंभीर मुद्दा है, उतनी ही गंभीरता से हमें उन ‘सामान्य’ दिनों को लेना होगा जिसमें द्वंद्व तो पूरा है, पर ऐसी घटना नहीं घट रही कि पूरा देश हिल जाए।

अब आते हैं पति-पत्नी के रिश्ते पर, जो वस्तुत: दो इंसानों के बीच का रिश्ता है। इसीलिए, जो व्यवहार एक इंसान के प्रति घातक है वो पत्नी के प्रति भी घातक है और पति के प्रति भी, क्योंकि पति पति बाद में है, पहले एक इंसान है; पत्नी पत्नी बाद में है पहले एक इंसान है। इसीलिए हमें इंसान द्वारा इंसान के शोषण को ही नकारना होगा, रोकना होगा और तब ये बहस अप्रासंगिक हो जाएगी कि पति ने पत्नी का शोषण किया या पत्नी ने पति का। और इसीलिए फिर हर तरह के शोषण को रोका जाएगा फिर चाहे वो फ़ेमिनिज़्म के नाम पर हो, पितृसत्ता के नाम पर हो या किसी अन्य नाम पर। और जब पति और पत्नी अपनी प्राथमिक पहचान इंसान होने को मानेगे तब वो अपनी पति-पत्नी आदि द्वितीयक पहचानों को भी सही से निभा पाएँगे और फिर संबंधों में शोषण नहीं, सहयोग होगा।

हाँ, ऐतिहासिक तौर पर लंबे समय तक किसी का सिर्फ़ एक विशेष देहधारी होने के कारण शोषण होता आया हो तो उसको रोकने के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व न्यायिक तौर पर विशिष्ट प्रावधानों का होना ज़रूरी है, जायज़ है, पर उनका उद्देश्य ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना है, न कि नए अपराध करने का लाइसेंस देना।

वास्तव में हमारी स्थिति एक तरह से बेबसी की ही है, क्योंकि बचपन में ही इंसान को मारकर उसे लड़का या लड़की बना दिया जाता है — देह से नहीं, मन से। देह तो जैसी है सो है, देह को तो अपने न स्त्री होने से कोई तकलीफ़ है, न पुरुष होने से। यही विडंबना कि देह मात्र नहीं, हमारी पूरी हस्ती ही स्त्री या पुरुष की हो जाती है, यही आगे चलकर सब लिंग आधारित अपराधों को जन्म देती है।  और हमारी सारी व्यवस्थाएँ — शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था, फिल्म व मनोरंजन जगत की व्यवस्था इत्यादि उसी दैहिक पहचान को और सघन करते जाते हैं। इसका कुल परिणाम ये होता है कि सामने से आ रहे इंसान में हमें इंसान नहीं दिखाई देता, स्त्री या पुरुष दिखाई देता है। और ये बात इतने गहरे उतर चुकी है हमारे भीतर कि न मेरे लिए, न ही हममें से अधिकांश लोगों के लिए ये आसान होता हो कि इंसान को इंसान की तरह देख पाएँ। पर चूँकि इस विकार की दवा यही है, इसीलिए आसान हो या कठिन, प्रयत्न तो सही दिशा में ही करना होगा।

इस मुद्दे को स्त्री बनाम पुरुष का मुद्दा बनाकर तो मुद्दे की गंभीरता को बहुत कम कर दिया जाता है। वास्तव में ये इंसान की इंसानियत और उसके वहशीपने के बीच का मुद्दा है जिसमें इंसानियत को बचाना होगा और वहशीपने का विरोध करना होगा, फिर चाहे इंसानियत स्त्री देह से अभिव्यक्त हो रही हो या पुरुष देह से, इसी तरह चाहे वहशीपना चाहे स्त्री देह से निकल रहा हो या पुरुष देह से। और इंसानियत की पहचान होगी — होश, समझ, विवेक, स्पष्टता, जीवन में गहराई और सार्थकता। और वहशीपने की निशानी होगी — बेहोशी, क्षुद्रता, अज्ञान, हिंसा।

हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि बीस-बाईस की उम्र में ही अधिकांश लड़के-लड़की विवाह संबंध के बंधन में बँध जाते हैं, और यकीन मानिए तब तक न विवाह का मतलब, पता होता है, न संबंध का। तो पहला काम तो यही किया जाना चाहिए कि इतनी जल्दबाजी न की जाए, ज़्यादा महत्व जानने-समझने पर लगाया जाए ताकि जब किसी की जीवन भर के लिए संगति स्वीकारें तो उसे दोनों के लिए कल्याणकारी तरीके से निभाया जा सके। दाम्पत्य जीवन को एक-दूसरे की संगति के रूप में देखा जाए इसीलिए बहुत देख-परखकर ही सही साथी चुना जाए। और सही साथी की पहचान होगी इंसानियत की वो पहचानें जिनकीं बात ऊपर हुई — होश, समझ, करुणा, विवेक, स्पष्टता इत्यादि।

दूसरी बात उनके लिए जो पहले से ही इस संबंध में बँध चुके हैं — वो याद रखें कि ये दुनिया है, यहाँ सबकुछ परिवर्तनशील है, बदलता रहता है। अगर कुछ ठीक नहीं है, तो उसकी नियति नहीं है कि वो वैसा ही बना रहे, उसे बदला जा सकता है, सुधारा जा सकता है, संबंध को एक ऊँचाई, एक गहराई दी जा सकती है। हाँ, थोड़ा मुश्किल पड़ेगा, पर कठिनाई से भागकर संबंध को उथला और बनावटी रखा तो ये तो बहुत महँगा सौदा हो गया। इससे अच्छा तो कठिन ही सही, पर कोशिश ही कर ली जाए। सारे संभव प्रयास करना ही पहला विकल्प होना चाहिए, संबंध तोड़ना तो आखिरी विकल्प होना चाहिए। क्योंकि इंसान अगर अपना अहित कर सकता है बेहोशी में, तो अपना हित भी कर सकता है होश में।

पुन:, यहाँ ये बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है कि दो इंसानों के बीच पति-पत्नी का रिश्ता नहीं हो सकता है, बिल्कुल हो सकता है, पर पति-पत्नी के बीच भी रिश्ता तभी सही हो सकता है जब पहले इन दो इंसानों के बीच के रिश्ते के आधार में प्राथमिक पहचान मनुष्य होने की हो, दूसरी पहचान पुरुष या स्त्री होने की। और चूँकि दो इंसानों के बीच एक सुंदर रिश्ता हो सकता है, तो पति-पत्नी के बीच भी हो सकता है, होना ही चाहिए और उसी सौंदर्य की ओर लगातार अग्रसर होते रहने में ये संग सहायक हो, न कि अवरोधक।

अब बात उस घटना की कर लेते हैं जिससे ये पूरी चर्चा शुरु हुई — आत्महत्या की घटना। देखिए, आत्महत्या में (या अन्य दुखद हादसों में मृत्यु होनें में) सिर्फ़ एक व्यक्ति की जान भर नहीं जाती, कई अन्य लोगों की ज़िंदगियाँ इस कदर प्रभावित होती हैं कि वो पूरी ज़िंदगी भर उससे उबर नहीं पाते। खासकर बच्चों पर इसके जो परिणाम होते हैं, उसको तो हम बहसों के शोरगुल में भूल ही जाते हैं। उनका जीवन जो सामने खुला हुआ था प्रकाशित होने की संभावना लिए, वो जीवन कैसे-कैसे अंधेरे गर्तों में विनष्ट हो जाता है, उसकी कोई तुलना नहीं। और ये बात सिर्फ़ अभिभावक की मृत्यु के लिए नहीं है, अगर अभिभावकों का आपकी रिश्ता कलहपूर्ण है तो वैसे माहौल में भी बच्चों पर दुष्परिणाम होता है, उसकी कोई इंतहाँ नहीं। इसीलिए कलह हो या जीवन का अंत, दोनों ही अवांछनीय स्थितियाँ हैं।

जीवन का अनिवार्य तथ्य मृत्यु बाद में है, जीवन के खिल उठने की संभावना पहले है। इसीलिए जीवन का अपनी उच्चतम संभावना को साकार करने से पहले ही किसी हादसे का शिकार होकर नष्ट हो जाना किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। व्यक्तिगत तौर पर हर उस इंसान की जिसकी साँसें अभी थकी नहीं हैं, उसकी ये जिम्मेदारी है वो जीवन के मूल्य को, उसकी संभावना को समझे और इसीलिए अन्य लोंगो के, अन्य जीवों के जीवन के महत्व को भी समझे। क्योंकि जब भी कोई दूसरों के जीवन का मूल्य नहीं समझ रहा होता है, तब वो अपने जीवन के मूल्य को भी गिरा रहा होता है।

अंत में, हमें इस बात को सब तक पहुँचाना होगा कि जब भी किसी मुसीबत से निकलने का अगर कोई रास्ता नहीं होता, तो आत्महत्या भी कोई रास्ता नहीं होता। सार्थक संघर्ष में जूझने, कष्ट झेलने में अपनी एक गरिमा है, और फिर क्या पता, कोई रास्ता निकल ही आए। जीवन जो उच्चतम दे सकता है, उसके खातिर गरिमामय संघर्ष कोई घाटे का सौदा नहीं है। इस संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण पहलू तो यही है कि उन ताकतों, उन प्रभावों को छिटककर दूर फेंक दिया जाए जो इस संघर्ष को कमजोर कर हौंसला तोड़ने का काम करते हैं। जीवन जिसे मिला है, उसे ही जीना है; इसीलिए किसी के उकसावे में आकर अपने ही जीवन को नष्ट नहीं किया जाना चाहिए — कष्ट भले सह लेंगे, पर जीवन के आगे कमजोर नहीं पड़ेंगे, और कमजोर करने वाली भीतरी और बाहरी ताकतों के खिलाफ़ शान से लड़ेंगे।

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