दुनिया में सबसे आसान काम जो हम सब लगातार कर रहे होते हैं वो है लोगों के सामने अपनी एक नकली (खुशी से छलछलाती) छवि प्रदर्शित करना; और कठिनतम कामों में से जो है वो है ये जान पाना कि ये दिखावा दुनिया के साथ नहीं, वरन् स्वयं के साथ धोखा देना है।
किसी ग़ज़ल की पंक्तियाँ हैं – \”तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या गम है जिसको छुपा रहे हो\”, उसी तरह एक और है – \”हँसो आज इतना कि इस शोर में, सदा सिसकियों की सुनायी न दे\”। यही बात प्रसिद्ध मनोचिकित्सक (Psychoanalyst) Alfred Adler की Adlerian Psychology में मिलती है कि जो बाहर बहुत खुशी में झूमता दिखायी दे रहा है, वो वास्तव में भीतर-ही-भीतर दुख में ज़रूर है।
और इस तथ्य को जानने के लिए किसी ग़ज़ल या मनोचिकित्सक की ओर ताकने की भी ज़रूरत नहीं है, हम अपनी ही ज़िंदगी के कुछ घंटों या कुछ दिनों में स्वयं की स्थिति को ईमानदारी से देख भर ले तो यही दिखायी देगा। उदाहरण के लिए, पिछली 24 घंटों में क्या मैं सच में भीतरी तौर पर आनन्दित था, सहज था, स्वस्थ था या फिर बस दिखाने के लिए औपचारिकतावश एक बनावटी व झूठी हँसी प्रदर्शित की गयी थी? कल्पना करके देखिए कि अगर मेरे पिछले कुछ दिनों की हर क्षण की वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध हो, तो क्या सच में हमारी स्थिति उतनी ही खुशनुमा थी जितनी कैमरे के सामने हम दिखाते हैं?
इस प्रश्न का आपका जवाब जो भी हो, मैं तो कहीं से भी दावा नहीं कर सकता कि आनन्द की सतत् अवस्था के एक क्षण को कैमरे ने तस्वीर में कैद किया है। असलियत में तो इसका उल्टा ही ज़्यादा होता है। आन्तरिक अपूर्णता की एक अनवरत् धार चल रही होती है (जिसे ही भगवान बुद्ध ने प्रथम आर्य सत्य में \’दुख है\’, ऐसा कहा है), और हम उसके ऊपर छद्म पर्दा डालते रहते हैं। और ये बात किसी व्यक्ति विशेष की नहीं वरन् हम सबकी है, उन तथाकथित सेलिब्रिटीज़ की भी जिन्हें देखकर हमें लगता है कि बस, इनके जैसा बन जाएँ तो जीवन सफल हो जाएगा। ऐसा सोचना बस मृग-मरीचिका के समान है, क्योंकि उनका भी सारा दिखावा आन्तरिक खोखलेपन को ढँकने का असफल प्रयास भर होता है।
क्योंकि हमारे नाम अलग-अलग हो सकते हैं, काम-धन्धे अलग-अलग हो सकते हैं, सामाजिक स्थिति अलग-अलग हो सकती है, मन की सामग्री अलग-अलग हो सकती है, किन्तु मन जिन नियमों पर चलता है, जिन वृत्तियों पर चलता है, वो सबके लिए समान ही होती हैं। और इस मामले में तो अपवाद के रूप में ऐसी मिशालें मिलना लगभग असम्भव ही है कि जो भीतर से सहज है, पूर्ण है और उस सहजता, पूर्णता की झलक हमें तस्वीरों के माध्यम से सोशल मीडिया या टीवी वगैरह पर दिखा रहा है।
तो क्या सोशल मीडिया पर फ़ोटो डालने में कोई बुराई है? नहीं, बुराई कुछ नहीं है, पर डालने वाले को ये होश रहे कि तस्वीर कि हँसी बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं, वो बस ऊपरी बात है और मूल समस्या व उसका असली समाधान कुछ और ही है; और देखने वालों को इतना होश रहे कि कह पाए कि ये सब मुखौटे हैं जिन्हें बहुत भाव नहीं देना है, प्रभावित तो कदापि नहीं होना है। हाँ, कुछ सीखने के लिए हो तो उस सीमा तक ठीक है।
तो क्या कैमरे के सामने मुस्कुराने में कोई बुराई है? नहीं, मुस्कुराने में बुराई कैसे हो सकती है, वो भी तब जब जीवन का उद्देश्य ही परम खुशी पाना है (जिसे शास्त्रीय रूप से आनन्द कहते हैं)। बुराई तो उस वो छवि में होती है जो तस्वीरों में तो दिखती है, पर असल जीवन में भीतरी सहजता या स्वास्थ्य के बजाय भीतरी बेचैनी से उद्भूत हुई होती है। ग़लत तस्वीर नहीं, तस्वीर में दिखायी जाने वाली छवि होती है। और अगर वहाँ दिखावे के बजाय सहजता की अभिव्यक्ति हो रही है, तब वो शुभ है, सबके लिए कल्याणकारी है। और अगर ये सब कोई मार्केटिंग या ब्रांडिंग की स्ट्रैटजी है तो फिर वो एकदम अलग मसला है।
और यहाँ स्थिति का मूल्यांकन किसी नैतिक आधार पर नहीं किया जा रहा, वो छवि गड़बड़ इसलिए है क्योंकि हमारा नुकसान कर जाती है। पहली बात, वो छवि जिसकी हक़ीक़त से हम ही वाकिफ़ नहीं हैं, हमें जीवन के धरातल की सच्चाई से दूर कर हमारी भीतरी हानि करती है। हमें एक अवास्तविक (virtual) दुनिया के रंगीन भ्रमों में पटक देती है। इसी का परिणाम है कि आज ज़िन्दगी दो भागों में बँट सी गयी है जिनके बीच में कोई समरसता नहीं होती।
दूसरी बात, वो तस्वीर दूसरे देखने वालों को ये भ्रम दे देती है कि देखो इस बन्दे की लाइफ़ एकदम सेट है , जबकि वो अपनेआप में अधिकांशत: एक छलावे वाली बात होती है। इसीलिए अगर किसी बात से दोहरा नुकसान हो रहा है, तो उस पर प्रश्न उठना ही चाहिए, खासकर दोनों प्रभावित पक्षों के मन में – देखने वाले और दिखाने वाले के मन में। और इस तथ्य से तो सभी वाकिफ़ ही होंगे कि इंटरनेट की बढ़ती पहुँच ने ज़िन्दगी को लगभग virtual ही बना दिया है जिसमें दिखावे और सच्चाई के बीच भेद कर पाना दिन-ब-दिन दूभर होता जा रहा है।
ये बात भी सही है कि पूरी तरह से सहज, स्वस्थ शायद कोई न हो, पर हम उस राह के यात्री भी बनने का चुनाव निरत करते रहें, तो वो भी अपनेआप में कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। और उसका तरीक़ा कदाचित् वही है जो बात शुरुआत में ही कही गयी थी कि सारी दुनिया हमारे जीवन की हकीकत से बेख़बर हो सकती है, भ्रम में हो सकती है, पर हमें अपनी हकीकत लगातार पता होनी चाहिए और फिर उसे लगातार ही बेहतरी की दिशा की ओर अग्रसर करते रहना चाहिए।
बात यहाँ निराशावादी होकर दुखी होनी की नहीं, वरन् भीतरी तथ्य को जानकर उससे मुक्त होने की है, आनन्द में प्रवेश करने की दिशा में कदम बढ़ाने की है। अन्यथा तो अगर दुख में ही रहना हमारी नियति होती तो फिर तो जीवन में किसी भी तरह के बेहतरी के प्रयास को करने का कोई औचित्य ही नहीं होता। पर औचित्य है क्योंकि दिखावे से परे कुछ असली, कुछ वास्तविक जीवन में उतर सकता है, जीवन को प्रकाशित कर सकता है और वो इतना ज़रूरी है कि उसके लिए हर सम्भव कोशिश की ही जानी चाहिए।
—————————————————
मन के बहुतक रंग हैं, छिन छिन बदले सोय।
एक रंग में जो रंगे, ऐसा बिरला कोय।।
~ सन्त कबीर साहब