ये न राजनैतिक समस्या है, न धार्मिक समस्या है, न ही किसी विशिष्ट विचारधारा का मुद्दा है, ये मनुष्यों और अन्य सभी जीवों के लिए अस्तित्वगत समस्या है। ये स्पष्टीकरण शुरुआत में इसीलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि मुद्दे को देखने से पहले यही देखा जाता है कि ये किस राजनैतिक या धार्मिक धारा के पक्ष में है या किस तरह की विचारधारा के विरोध में। राजनीति, (तथाकथित) धर्म, संकुचित राष्ट्रवादिता, जातीयता, आर्थिक स्थिति और न जाने कितनी अन्य विभाजनकारी दीवारें समाज में इस कदर घर कर गयीं हैं कि कोई भी मुद्दा या उसकी प्रासंगिकता इन्हीं दीवारों में कैद होकर दम तोड़ देती है और सारी बहस का केन्द्र बस इन्हीं विभाजनदारी दीवारों और उनकी आपसी छींटाकसी तक सिमटकर रह जाता है।
इसीलिए जिस मुद्दे की बात यहाँ की जा रही है, उसे किसी भी तरह की सीमाओं में बाँधकर देखना उसकी गम्भीरता से आँख चुराने की नाकाम कोशिश भर होगा, क्योंकि जो सामने प्रत्यक्ष है अपनी पूरी भयावहता के साथ, उससे आँख चुराई तो जा सकती ही नहीं। हम सब बाकी सब मुद्दों पर बहस कर सकते हैं, सहमति-असहमति का खेल खेल सकते हैं, वाद-प्रतिवाद कर सकते हैं, परन्तु इस मुद्दे की गम्भीरता को असहमति के नाम पर नकारना सभी के लिए शुतुरमर्ग के चरित्र जैसा आत्मघाती होगा, जो प्रत्यक्ष खतरे को देखकर अपनी गर्दन रेत में छुपा लेता है और सोचता है कि अब कोई खतरा नहीं है। समस्या का नकार समस्या का समाधान नहीं होता।
ये सवाल बिल्कुल उठ सकता है कि वास्तव में स्थिति इतनी गम्भीर है भी, क्योंकि हमें तो ऐसा कुछ खास दिखाई नहीं देता। इसका जवाब हम-आप भले ही न ज्यादा जानते हों, पर जो क्लाइमेट शोधकर्ता, विशेषज्ञ और वैज्ञानिक कम्युनिटी है, वो कम-से-कम हम से तो अधिक ही जानते होंगे। वो लगातार हमें आगाह कर रहे हैं। उनकी बात न सुनना, बात को समझे बिना विरोध करना हमारी नीयत पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। और जहाँ तक बात दुष्परिणामों की है, तो वो साफ़-साफ़ हमारे सामने हैं। गर्मियों में गर्मी इस कदर पड़ रही है कि पिछले सारे रिकॉर्ड तोड़ दे रही है, बेमौसम बारिश खड़ी फसलों की तबाही ला रही है, बाढ़ व तूफानों जैसे भीषण मौसमी तबाहियों (extreme weather events) की घटनाएँ कई गुना बढ़ गयीं हैं।
पर शायद जब तक कोई जोर का झटका न लगे, हम ये मानना ही नहीं चाहते की गाड़ी गड्डे में जा रही है। वही मेढक वाली बात कि अगर मेढक को गर्म पानी में फेंक दो तो तुरन्त उछलकर बाहर आ जाएगा। पर यदि उसे ठंडे पानी में डालकर पानी को धीरे-धीरे गरम करते रहे तो वो वहीं उबलकर मर जाएगा। ग्लोबल वार्मिंग भी पृथ्वी को वैसे ही उबाल रहा है और उसके दुष्परिणाम हम लगातार झेल रहे हैं।
ये तो समस्या की गम्भीरता का ब्यौरा हुआ (जो कि बहुत ही कम है असली स्थिति की तुलना में)। अब चूँकि समस्या इतनी बड़ी तो हमें ऐसा विचार आ सकता है कि इसका समाधान या बचाव के उपाय या दुष्परिणामों को कम करने के तरीके भी बहुत बड़े-बड़े होंगे जिसके लिए देश व दुनिया की सरकारें या संस्थाएँ ही कुछ कर सकती हैं। असलियत ये है कि सरकारों से कहीं अधिक आप और हम जैसे सामान्य लोग ही इससे निपटने के लिए कुछ कर सकते हैं। सरकारें भी जो नियम-कानून या पॉलिसी ला सकती है, उनको अमल में तो हमें ही लाना होगा। और अगर सरकारें कुछ न करें तो क्या हम खुद को और अपने बच्चों को उन भीषण परिस्थितियों में झोंक देगे जो जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होनी वाली हैं? सरकार तो आती-जाती चीज़ है, दुष्परिणाम तो हमें झेलने होगे, इसीलिए जो कुछ किया जा सकता, वो भी हमें ही करना होगा।
पृथ्वी पर दो सौ के करीब देश ज़रूर हैं, पर सब देशों के पास पृथ्वी बस एक ही है। तो ये भी नहीं चल पाएगा कि कोई एक देश अपने हिस्से की जिम्मेदारी का काम करके प्रसन्न हो जाए। हमारे लिए सीमाओं में बँधे देश महत्वपूर्ण हो सकते हैं, पर्यावर्णीय तबाही ऐसी किसी सीमा की ज़रा भी परवाह नहीं करेगी। जब समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा तो क्या वो चुनकर बढ़ेगा कि एक किनारे पर बढ़ जाता हूँँ। दुनिया का कोई भी कोना जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से अछूता नहीं रह पाएगा, फिर चाहे दुर्दशा का प्रमुख कर्ता कोई भी रहे हों।
एक बात और जाननी ज़रूरी है कि वैश्विक तापन से होने वाली जलवायु परिवर्तन की विनाशकारी आपदा एन्थ्रोपोजेनिक अर्थात् मानव गतिविधि के कारण आयी है। और मानव की लगभग हर गतिविधि (उपभोग व उसके उत्पादन की प्रक्रिया) पर्यावरण में हानिकारक गैसें छोड़ती है जिससे वैश्विक तापन बढ़ता है। इसीलिए लोगों की कुल संख्या और प्रति व्यक्ति भोग का गुणनफल कुल नुकसान की तस्वीर बयाँ करता है। अत: ज़रूरी है कि इन दोनों आयामों को ध्यान में रखते हुए कदम उठाने होंगे और उसकी पहल सभी आमजनो को ही करनी होगी, औऱ अगर वो नहीं करेगा तो सरकारें कुछ भी कानून बनाते रहें, धरातल पर स्थिति नहीं बदलेगी। और वैसे भी सरकारें भी तो वही करती है जो जनसंख्या का बड़ा वर्ग चाहता है। फिर करें तो करें क्या? कुछ कदम जो हर आमजन को उठाने ही होगे अगर वो अपना और आने वाली पीढी का जरा भी हित चाहता है, वो इस प्रकार हैं –
1. नये बच्चों को कम-से-कम जन्म देना (सबसे बड़ा कारक है ये आपदा का)
2.जीवन को तमाम सृजनात्मक कार्यों से भर ले जैसे कि कला, साहित्य, संगीत, खेल, गायन, भ्रमण, लेखन, नृत्य इत्यादि, इत्यादि, ताकि आन्तरिक बेहतरी के लिए बाहरी वस्तुओं के अन्धाधुन्ध उपभोग पर निर्भर न रहना पड़े।
3. जीवन में सभी मनुष्यों एवं अन्य जीवों के प्रति करुणा विकसित करना, उनके जबरदस्ती के प्रजनन व फिर बेहरम हत्या को रोकने में सहायक होना (इसका जनवायु परिवर्तन से सीधा व गहरा सम्बन्ध है, थोड़ी खोज करके शोध पढ़े)
4. तथ्यों को जानना, वैज्ञानिक दृष्टिकोण जाग्रत करना (जिसमें बाहर संसार को और भीतर मन को देखा-समझा जा सके)
और भी अनेक उपाय हैं जो अपेतक्षतया कम प्रभावी हैं, इसीलिए अधिक प्रभावी उपायों को खासकर अमल में लाना ही होगा।

इस बात में दोराय हो सकती है कि पर्यावरण का संरक्षण और विकास एक साथ हो सकते हैं कि नहीं, परन्तु इस बात में कोई दोराय नहीं कि पर्यावरण को नष्ट करके विकास तो नहीं ही हो सकता, वो विकास के नाम पर फिर विनाश ही होगा। क्योंकि दशकों के विकास को एक आपदा धूल में मिला देती है। 2013 में उत्तराखंड की आपदा हो, चक्रवातों से बढ़ता विनाश हो या दुनिया के अनेक देशों में हाल में आयीं बाढ़ें हो, ये सब इसी बात का प्रमाण हैं। ये प्रमाण तो फिर भी थोड़ी दूर के लग सकते हैं, हाल ही में बुन्देलखंड क्षेत्र में रबी की फसल को दिसम्बर में असामान्य कोहरे की वजह से ठीक से धूप नहीं मिली, जिसके कारण पौधों में दाने ही नहीं आए और जो गिनती के दाने आए, बाद में उन पर भी बेमौसम बारिश ने कहर ढहाकर नष्ट कर दिया। किसानों की स्थिति देखिए, सब समझ में आ जाएगा कि जलवायु-परिवर्तन कितना विनाशकारी है।
यद्यपि भारत जैसे देश में जहाँ अभी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग जीवन को गरिमापूर्ण तरीके से जीने के लिए आवश्यक जरूरतों सें वंचित है, विकास परियोजनाएँ अनिवार्य हैं, पर आज के वैज्ञानिक युग में पर्यावरण के क्षरण का आँकलन करना और फिर पर्यावरण के संरक्षण को सुनिश्चित करने के बाद परियोजनाओं का क्रियान्वयन करना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए। साथ-ही-साथ संवेदनशील इलाकों के साथ छेड़छाड़ी करने की भूल तो सामान्य बुद्धि वाला व्यक्ति भी कतई नहीं करेगा जिसको अपनी भलाई और छेड़छाड़ के दूरगामी परिणाम की ज़रा भी समझ हो। वही बात सरकारोंं और देशों की नीतियों के सम्बन्ध में भी लागू होती है।
स्थिति बहुत बिगड़े उससे पहले ही कदम उठाने होंगे, वरना बाद में मौका ही नहीं मिलेगा, या यूँ कहो कि बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी समस्त मानवता को। और इसकी शुरुआत उनसे होगी जो बिल्कुल ही सक्षम नहीं हैं इन दुष्प्रभावों के सामने खड़े होने के, उदाहरण के लिए, गरीब और मजदूर वर्ग तथा मनुष्येतर सभी जीव-जन्तु, पशु-पक्षी इत्यादि।
एक-एक व्यक्ति को बदलना होगा, जाग्रत होना होगा, नहीं तो जो चन्द जन बचेंगे, उनकी बातचीत का नज़ारा कुछ ऐसा होगा-
“सारे जीव-जन्तु और मनुष्य कैसे विनष्ट हो गये; विश्वभर की विशाल सदानीरा नदियाँ कैसे सूख गयीं; पर्वत, जंगल और ग्लेशियर कहाँ गायब हो गये, शहर के शहर कैसे उजड़ गये? ये सब किसने किया, किसने ये तबाही लायी है?”
“जब राजनेता सत्ता और वोट की खातिर जनता को जाति, पंथ, भाषावाद, क्षेत्रवाद इत्यादि का विभाजनकारी जहर पिला रहे थे, विश्व के सारे देश एक-दूसरे पर दोषारोहण कर रहे थे, मीडिया उत्तेजक व मसालेदार किन्तु गन्दा कंटेंट गले में हाथ ठूँसकर लोगों को खिला रही थी, विभिन्न समुदाय बेमतलब के मुद्दों में उलझकर आपस में लड़े पड़े थे और आम जनता सस्ते मजे के नशे में धुत और अपनी छोटी सी दुनिया के क्षुद्र मुद्दे में व्यस्त थी, उसी समय जलवायु-परिवर्तन की समस्या रौद्र रूप लेकर बढ़ती चली आ रही थी, परन्तु सभी ने उसकी उपेक्षा की। उसी उपेक्षा ने ही सारी तबाही मचायी है।”