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जो हम भारतीयों को पश्चिम से सीखना चाहिए, लेख १ – साफ़-सफ़ाई

प्रस्तावना

हाल ही में मुझे संयुक्त राज्य अमेरिका में शिकागो के निकट स्थित प्योरिआ (Peoria) शहर में कुछ महीने बिताने को मिला। उस दौरान वहाँ के अनेक शहरों और प्राकृतिक स्थलों को देखने का भी अवसर मिला। इस पूरे आवास के दौरान जो भी देखा, अनुभव किया और सीखा, उसको यहाँ विभिन्न लेखों के माध्यम से समय-समय पर साझा करने का प्रयत्न करता रहूँगा। हो सकता है कि उनसे किसी को किसी-न-किसी तल का कुछ फायदा मिले।

पर उससे पहले कुछ जरूरी बात –

दुनिया में हर एक व्यक्ति गुणों व दोषों का सम्मिलित पुतला होता है। शायद ही ऐसा कोई हो जो हर दृष्टि से दोषरहित है, या जो हर दृष्टि से गुणरहित है। कहने का तात्पर्य ये है कि हम जैसे सामान्य इंसान के अन्दर गुण-दोष दोनों अलग-अलग अनुपात में रहते ही रहते हैं, और व्यक्ति का स्वयं के प्रति ये दायित्व होता है कि वो दुर्गुणों (दोषों) को कमतर करता चले। इसी को शास्त्रीय भाषा में कहते हैं कि तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सतोगुण की ओर जीवन की दिशा रहे। (यहाँ गुणातीत ही बात नहीं हो रही है, वैसे भी उस बारे में बात हो भी नहीं सकती।)।

अब अगर व्यक्ति के स्थान पर समाज को रख दिया जाए तो एक समाज भी अनेक अच्छाइयों और बुराइयों की एक मिश्रित इकाई होता है। वैसे तो समाज जैसा अपनेआप में कुछ होता नहीं, आसपास रह रहे लोगों को ही समाज कह दिया जाता है और उसकी हर अच्छाई या बुराई का मतलब वास्तव में लोगों की अच्छाई या बुराई से होता है क्योंकि लोगों के बिना समाज जैसा कुछ नहीं होता। तो इस तरह से परिभाषित अलग-अलग समाजों में अच्छाइयों और बुराइयों की व्याख्या अलग-अलग हो सकती है और उनमें उनका अनुपात भी कम या ज़्यादा हो सकता हैं। उदाहरण के लिए, कुपोषित बच्चों की संख्या के मामले में कुछ समाज किसी दूसरे समाज से बेहतर स्थिति में हो सकते हैं और ये बात तथ्यों व आकड़ों के रूप में प्रकट की जा सकती है। परंतु ये बात पूरी निश्चितता के साथ कही जा सकती है कि चाहे कोई भी व्यक्ति हो या कोई समाज, पूरे तरीके से विकार-रहित कोई नहीं होता। सच कहूँ तो एक तरीके से ये अच्छी बात ही है, क्योंकि यही अपूर्णता तो ईंधन बनती है व्यक्ति की सारी गतिविधियों की ताकि वो और बेहतर होने के लिए संषर्घरत रहे, और यही अपूर्णता ईंधन बनती है समाज के सारे उपक्रमों का जिनके माध्यम से समाज भी अपने में व्याप्त तमाम खामियों को हटाता चले। काश व्यक्ति का भीतरी केंद्र ही सच का हो पाता जिससे व्यक्ति व समाज का हर कर्म, हर गतिविधि का परिणाम शुभ ही होता, पर अभी तो स्थिति अपूर्णता की है जिसमें बेहतरी के लिए संघर्ष आवश्यक है।

अगर दो व्यक्तियों या समाजों की तुलना करनी हो तो ये एक बहुत अच्छा पैमाना है कि कौन अपनी कमियों का अवलोकन कर उनको स्वीकार करता है और फिर पूरे ज़ोर से उन कमजोरियों को हटाने का प्रयत्न करता है। जो भी अपनी बेहतरी की नियत से आसपास देखेगा, उसे दूसरे से या दूसरे को देखकर सीखने में ज़रा भी शर्म नहीं आएगी, बल्कि वो इसको एक अवसर या सहायक की तरह लेगा। व्यक्ति हो या समाज, कोई भी सारी गलतियाँ खुद करने के बाद ही सीखने की मूर्खता नहीं कर सकता, क्योंकि गलतियाँ की संख्या अनंत है और गलतियों को ढोते रहने का दर्द पीड़ादायक। इसीलिए स्वयं के अवलोकन के अलावा दूसरे की सीख या स्थिति से सीखना न तो अपमान की बात है और न ही हीनता की। बल्कि, जैसा पहले कहा, ये एक मजबूत इंसान या मजबूत समाज की आवश्यक पहचान है।

ऊपर इतना सब सिर्फ इसलिए कहा गया है ताकि अब तो कहने जा रहा हूँ, उसका उल्टा या मनगढंत अर्थ न निकाला जा सके। क्योंकि मैं दो पलड़ों में से एक पर हमारे भारतीय समाज व व्यवस्था को रखने जा रहा हूँ और दूसरे पर संयुक्त राज्य अमेरिका यानि कि पश्चिम के समाज व व्यवस्था को (जैसा मैंने उसे देखा)। इसका मतलब ये नहीं होगा कि मुझे पश्चिमी समाज व व्यवस्था में कोई भी कमी नहीं दिखी और भारतीय समाज में सिर्फ़ कमी-ही-कमी दिखती है। परंतु एक भारतीय समाज का भाग होने के नाते मेरा पहला कर्तव्य आत्म-अवलोकन कर अपनी कमियों को स्वीकार करना है, न कि ये करना कि खोखले राष्ट्रवाद या संस्कृतिवाद का नशा पीकर बिना तथ्यों को देखे बाकी सबको बुरा और भारतीय समाज या संस्कृति को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर दूँ। और इसी क्रम में पूरी विनम्रता (पर बिना हीन भावना) के साथ पश्चिम से जो कुछ सीखा जा सकता है, उससे ज़रूर सीखूँगा। पश्चिम में जो कमियाँ मुझे दिखी, आगे आने वाले लेखों में उनको भी बहुत ही विस्तार से वर्णित करूँगा। पर हमारी नीयत जहाँ कहीं जो कुछ भी अच्छा और सार्थक है, उससे सीखकर खुद को बेहतर बनानी की होनी चाहिए, न कि दूसरे के दोषों पर उँगली उठाकर खुद की कमियों को छुपाने या दबाने की। दूसरों में हज़ार दोष खोजकर भी हम अपनी एक कमजोरी से मुक्त नहीं हो सकते। और ये भी याद रखिए कि भारतीय राष्ट्र के आधार में जिज्ञासा और आत्म-अवलोकन है, मिथ्या अहंकार या दंभ नहीं।

और ये कहकर मैं ये बिलकुल नहीं कह रहा कि भारत महान नहीं है, निसंदेह भारत महान है, पर उसके गहरे और विशिष्ट कारण हैं। भारत इतना महान है कि भारत की महानता का प्रकाशित होना भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के सही होने के लिए परम आवश्यक है और उसके लिए भारत का, अर्थात् प्रत्येक भारतीय का हर दृष्टि से मजबूत और समर्थ होना ज़रूरी है। पर इस बात से कोई भी सहमत नहीं होगा कि अंधविश्वास, अशिक्षा, गरीबी, कुपोषण, सामाजिक कुरीतियाँ, रूढ़िवादी परंपराएँ, अवैज्ञानिक मान्यताएँ, जातिगत व लिंगगत भेदभाव, जगह जगह फैलाई गई गंदगी, आपराधिक वारदातें एवं भ्रष्टाचार जैसे तत्व भारतीय महानता के प्रतीक हैं। ये तो भारत की महानता पर इतने बड़े कलंक हैं कि सारी महानता जैसे कहीं विलुप्त ही हो गई है और खोखले नारों के अतिरिक्त अन्य अधिकांश जगहों पर दिखाई ही नहीं देती। सच कहूँ तो इन सब कलंकों के रहते देश की महानता न देश के काम आएगी, न देशवासियों के और न ही दुनिया के। भारत की महानता पर जो खतरों हैं, उन्हें ही महानता का कारण नहीं माना जा सकता। इसीलिए जो कोई भी समर्थ हो, जागरूक हो, ’ज़िंदा’ हो, ऐसे हर एक नागरिक की ये ज़िम्मेदारी ही नहीं, अनिवार्य कर्तव्य है कि वो इन कलंकों को पहचान-पहचानकर दूर करने के लिए हर संभव प्रयास करे। आज स्थितियाँ ऐसी हैं कि हम चाहकर भी अपनी छोटी सी निजी दुनिया में सीमित नहीं रह सकते, क्योंकि अगर बाहर की बड़ी दुनिया इन तमाम बुराइयों में जल रही है तो उस आग की आँच से आपकी छोटी सी दुनिया भी सुरक्षित नहीं है।

(Photo taken at: Starved Rock State Park, Illinois, USA)

१. साफ़-सफ़ाई

सबसे पहले जो बात मैं सम्मुख रखना चाहूँगा वो है स्वच्छता यानि की साफ-सफाई की स्थिति। जितना कचरे का एक ढेर हमारे यहाँ सड़क किनारे एक जगह पर पड़ा रहता है, उतना इधर-उधर फैला हुआ कचरा मुझे अमेरिका में कुल मिलाकर देखने को नहीं मिला, जबकि मैंने भारत जितने बड़े क्षेत्रफल में बसे विभिन्न शहरों की यात्राएँ की। अगर मैं कहूँ (सीने पर पत्थर रखकर) कि हमने अपने देश को, अपने प्यारे देश को कूड़ादान बनाकर रखा हुआ है, तो मैं ज़रा भी अतिश्योक्ति नहीं कर रहा हूँ। मैं जानता हूँ ये बात बहुत दुख की है, पर स्थिति का तथ्य तो यही है भले ही वो कितना भी कड़वा क्यों न लगे। यकीन मानिए कि पश्चिम में स्वच्छता का एकमात्र कारण वहाँ आबादी का कम होना नहीं है, अनेक अन्य कारण हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण कारण तो यही है कि आम-आदमी न तो कचरा इधर-उधर फेंकता है और न पान-मसाला खाकर दीवारें रँगता है। हाँ, वहाँ प्रशासन द्वारा कचरा-प्रबंधन की एक बेहतर व्यवस्था है, पर भारत में प्रशासन कितनी भी अच्छी व्यवस्था ले आए, जब तक आम संस्कृति में भीतर-बाहर, हर जगह स्वच्छता को महत्व नहीं दिया जाता, तब तक भारत देश सही अर्थों में तरक्की नहीं कर सकता – ये बेहद दुखद बात है, पर है तो है।

यकीन मानिए, स्वच्छता के सकारात्मक परिणाम बहुत दूर तक जाते हैं। स्वच्छता सिर्फ इसलिए ठीक नहीं है कि गंदगी दिखने में अच्छी नहीं लगती, बल्कि साफ-सफाई के अनगिनत बहुआयामी और दूरगामी सुपरिणाम होते हैं। उदारहण के लिए, जब गंदगी नहीं फैली होती तो व्यापक रूप से लोगों का स्वास्थ्य का स्तर बेहतर होता है। आपको शायद हैरानी हो, पर भारत देश में हर साल लाखों बच्चे (व अन्य लोग) उन बीमारियों के कारण मरते हैं जो गंदगी की वजह से फैलती हैं। आप उन मरते लोगों की ज़रा कल्पना कीजिए और फिर सोचिए कि कचरे को इधर-उधर न फेकने का आपका निर्णय कितने क्रांतिकारी बदलावों को साकार करने में सहायक हो सकता है। याद रखिए कि गंदा पानी – जिससे कई प्राणघातक बीमारियाँ फैलती हैं जिनसे अनेकों लोगों की जान जाती है – उस पानी को गंदा करने के पीछे एक बड़ा कारण वो सारा कचरा होता है जो हम कहीं भी खुले में फेंक देते हैं और फिर वो पानी में मिलकर उसे दूषित कर देता है।

चारों ओर फैली गंदगी के अगले नुकसान पर आते हैं। हमारा प्यारा भारत इतनी विविधताओं और प्राचीन व प्राकृतिक धरोहरों से भरा हुआ है कि दुनिया के कोने-कोने का व्यक्ति भारत की महान धरोहरों को देखे बिना नहीं रहना चाहिए, परंतु ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। भारत विदेशी पर्यटकों की संख्या के मामले में बहुत पीछे है। उसके पीछे कई कारण हैं, जो दो प्रमुख कारण हैं वो हैं जगह-जगह फैलाई गई गंदगी और व्यक्तिगत सुरक्षा से संबंधित का खतरा (जिसकी बात कभी और करेंगे)। तो पर्यटन के क्षेत्र को भी ये गंदगी पूरी तरह से अपंग कर रही है जिसके आर्थिक व सामाजिक तल पर अनेक भयंकर नुकसान हैं।

मनुष्यों के अलावा अन्य जीवों के लिए होने घातक परिणाम भी हमसे छुपे नहीं है। सड़क किनारे पॉलीथीन खाती गाय या भैंस के दृश्य को तो हमने सामान्य ही समझ लिया है, जबकि उससे उन पर क्या बीतती है, उसकी कल्पना आप खुद ही करने की कोशिश कीजिए। इसके अलावा नदियों और समुद्रों का बढ़ता प्रदूषण इतने निर्दोष जीवों की हत्या कर रहा है कि अगर उनकी आह से मनुष्य का सुख, चैन सब छिन जाए तो ये कोई आश्चर्य की बात नहीं। भला (विश्व भर में) करोड़ों जीवों की हत्या करने के बाद हम चैन से सोने का सोच भी कैसे सकते हैं? उसके परिणाम मानवता भुगत ही रही है आपसी द्वंद्व व जलवायु-परिवर्तन जैसी आपदाओं के रूप में।

और भी अनेकों नुकसान हैं जो हमारी छोटी सी लापरवाही के कारण हमें झेलने पड़ रहे हैं। हमने intangible (सूक्ष्म) नुकसानों की तो अब तक बात भी नहीं की है – जैसे कि दुनिया भर में गंदगी के कारण हमारे देश की होने वाली बदनामी और बाहर रह रहे भारतीयों की इस कारण एक गलत छवि का बनना इत्यादि-इत्यादि। आपको ये जानकर शायद हैरानी होगी कि दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में, दुर्भाग्य से, अनेक भारतीय शहरों के नाम आते हैं। ये बात हमसे कोई छुपी हुई नहीं है कि तमाम कोशिश के बाद भी चाहे बैंगलोर हो, भोपाल हो या ललितपुर, जगह-जगह कचरे के ढेरों का बिखरा हुआ पड़ा होना एक सामान्य दृश्य है।

अगर एक-एक व्यक्ति देश की ऐसी दुर्दशा करने की काबिलियत रखता है, तो वो उसको पलटने की ताकत भी रखता है, पर ज़रूरत है तो थोड़ा जागरुक होने की, गंदगी के भयंकर दुष्परिणामों से परिचित होने की और फिर दृढ़ता के साथ अपनी आदतों और ढर्रों से भिड़ जाने की। काम तो ये बहुत महत्वपूर्ण है पर इसे करने के लिए कोई अलग से, विशेष रूप से प्रकट नहीं होगा, एक-एक व्यक्ति को ही ये जिम्मेदारी, ये कर्तव्य निभाना पड़ेगा। और वो एक-एक व्यक्ति कोई और नहीं, आप और हम ही हैं। दूसरों के सुधरने के इंतजार में खुद गड़बड़ बने रहना असली इंसान होने की पहचान तो नहीं हो सकता। हमारे हाथ में हो कुछ और हो न हो, खुद सुधरने का इरादा तो सदा हमारे हाथ में होता-ही-होता है। याद रखिए कि समस्या को समझकर समस्या का हिस्सा न बनना समस्या के समाधान की दिशा में पहला कदम होता है।

हाँ, ये बात भी तथ्य है कि पिछले कुछ वर्षों में हुए प्रयासों के फलस्वरूप स्वच्छता की स्थिति पहले से ज़रा बेहतर ज़रूर हुई है, पर वो बेहतरी बस ज़रा सी ही है, कुछ वैसे जैसे चौथे चरण में पड़े कैंसर रोगी की स्थिति थोड़ी सी सुधरकर तीसरे चरण में आ जाए। स्थिति तो अभी भी अति-गंभीर ही है। हाँ, इस बात से सही दिशा में और अधिक प्रयास करने की ये प्रेरणा अवश्य ली जा सकती है कि घोर प्रयत्न से स्थिति सुधर सकती है, परंतु अभी जश्न मनाने का समय तो बिलकुल भी नहीं है। और न ही झूठे भ्रम पालने का कि अब तो सब ठीक हो गया है, गंगा और गलियाँ सब निर्मल व स्वच्छ हो गए हैं।

(नए बिंदु पर चर्चा अगले लेख में जारी….)

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