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दो परिवार, और सारा संसार

बाकी दुनिया के सम्पर्क से थोड़ा दूर ज़रूर था वो पूरा इलाका, परन्तु ज़रूरत की हर चीज़ वहाँ मौजूद थी। पहाड़ों की सुरम्य घाटियों के मध्य नदी की धार कुछ ऐसे बहा करती थी जैसे की चोटी पर सरसराती पवन।हर किसी की प्यास अपनी तृप्ति नदी के शीतल जल में पाती और मन की तृप्ति पहाड़ के वनों एवम् वहाँ के निवासी अर्थात् जानवरों के साथ एकान्त वार्तालाप में व जीवन के अवलोकन में।

घाटी के एक तरफ़ सिर्फ़ तीन सदस्यों का एक परिवार था, जो पूरी तरह से अपने आसपास की प्राकृतिक व्यवस्था के साथ सामंजस्य के साथ रहता था और आपस में भी प्रेम और मधुरता का सम्बन्ध था। जल, जंगल, पर्वत, जानवर इत्यादि के साथ-साथ मनुष्य की ऐसी तस्वीर थी कि किसी को किसी से ज़रा भी परेशान होने की कोई बात ही नहीं थी। जिसको जितनी आवश्यकता होती, उतना जैसा हाज़िर ही रहता आसपास ही। किसी से छीनने या किसी को सताने की तो बात ही अकल्पनीय थी।

नदी का निर्मल जल ऊपर से नीचे की ओर कलकल की सुरमय ध्वनि करता हुआ बहता, जानवर अपना जीवन अपनी दैहिक वृत्तियों के अनुसार गुजारते, पर्वत अपना अडिग खड़ा सबको सहारा देता, उर्वर भूमि सभी के लिए भोजन देती और मनुष्य अपने चारों ओर हो रहे प्रकृति के अनुपम नृत्य में डूबता, उसके पीछे के सिद्धान्तों को समझने का प्रयत्न करता, अन्वेषण करता और फिर  इनसे उपजे ज्ञान में आनन्दित होता। नये-नये आविष्कार करता भी करता, परन्तु उनका उपयोग किसी को भी सताने के लिए  नहीं होता था।

चूँकि इस घाटी के लोग आन्तरिक रूप से व्याकुल नहीं थे और न ही भीतरी चैन के लिए बाहरी वस्तुओं के भोग पर आश्रित थे, इसीलिए वहाँ स्वयं को बाक़ियों से श्रेष्ठ मानकर उनका शोषण  करने की नौबत ही नहीं आती थी। हाँ, बुद्धि और विचार में गहराई की अतिरिक्त क्षमता जो मनुष्य को यहाँ उपलब्ध थी, उसका  प्रकटीकरण जानवरों के प्रति करुणा, पहाड़ों के संरक्षण, वनों के संवर्धन आदि के रूप में होता था। कह सकते हैं कि दोनों तरह के लाभ थे — चैन भी था, और शोषण भी नहीं था। कदाचित् पहले के कारण ही दूसरा सम्भव हो पा रहा था।

थोड़ी नीचाई पर दूर एक दूसरी घाटी में एक दूसरा परिवार रहता था। उसको परिवार कहना भी ठीक नहीं होगा, पन्द्रह, बीस और शायद उससे भी ज़्यादा लोग थे। उनमें सदा ही किसी-न-किसी बात को लेकर आपस में होड़ लगी रहती थी, संघर्ष चलता रहता। कभी वो जंगल पर अपना अधिकार जताकर उन्हें काटने के लिए आपस में बँटवारे को लेकर झगड़ते, कभी वहाँ के जानवरों को अपने नियन्त्रण में करने के लिए, कभी जल की धार के हिस्से करने के मुद्दे पर एक-दूसरे का गला पकड़ लेते। यहाँ तक की जब कोई मुद्दा नहीं मिलता, तो खुद ही कोई कारण कल्पित कर लेते और लड़ने पर उताऊ हो जाते।

जिसके पास कम होता, वो अपनी कमी को लेकर परेशान रहता; जिसके पास ज़्यादा होता, वो और ज़्यादा हड़प लेने का षड्यन्त्र बनाने में लगा रहता और स्वयं को बेचैन करता। उनकी आपकी कलह के विध्वंसकारी प्रभाव जल्द ही उनके चारों ओर प्रकट होने लगे। नदी के जल की निर्मलता मलिनता में बदलने लगी, जानवर परेशान होने लगे तो लोगों के लिए भी परेशान करने लगे, जंगल नष्ट होने लगे और बंजर भूमि दिखाई देने लगी।

इन सबके चलते लोगों के बीच वो और ज़्यादा असुरक्षित और अपूर्ण महसूस करने लगे जिससे उनके बीच का संघर्ष इतना बढ़ गया कि फिर अपने या आसपास की किसी भी चीज़ की परवाह छोड़ उन्हें तबाह करने पर उताऊ हो गये। हर एक सदस्य दूसरे को शिकारी की तरह देखने लगा और इसीलिए खुद उनका शिकार करने के लिए खुद शिकारी बनने की होड़ में लग गया। शिकार और शिकारी, दोनों ही प्रत्येक सदस्य के भीतर घर कर गये, इसीलिए कभी वो शिकार बनने तो कभी शिकार करते। यही क्रम इस घाटी के लोगों आम बात हो गयी। ये उक्ति यहाँ सजीव हो उठी कि जब–जब मनुष्य का आन्तरिक पतन हुआ है, तब तब उसने बाहरी विनाश भी को भी अनिवार्य रूप से उत्पन्न किया है।

दूसरी घाटी की परिणति अन्तत: क्या हुई, उसकी कल्पना मात्र ही भयभीत करने वाली है। परन्तु ये जानना उपयोगी होगा कि वो इलाका हमारा पूरा गृह पृथ्वी है, जो रेत के छोटे से अ-महत्वपूर्ण कण के सामान अनन्त आकाश में कहीं झूल रहा है।  ये दो परिवार, दो परिवार नहीं, पृथ्वी पर मनुष्य प्रजाति की दो सम्भव स्थितियाँ हैं, जो वो अपने लिए चुन सकता है। चुनना उसके हाथ में ज़रूर है,  परन्तु फिर उस चुनाव के अनुसार आने वाले अच्छे या बुरे परिणाम से बचने का विकल्प उसके पास नहीं रहेगा।

पहली स्थिति में अगर मनुष्य संख्या में कम और भीतर से सुलझा हुआ रहेगा, तो आनन्द का भागीदार होगा जो पहली घाटी के लोगों को उपलब्ध था। यहाँ बात न तो गुफाओं वाली जीवन शैली अपनाने की की जा रही है और न ही ज़बरदस्ती जनसंख्या कम करने देने की; बात बस भीतरे पूरेपन के लिए बाहरी वस्तुएँ के भोग पर निर्भर न रहने की हो रही है। और जब मन ऐसा हो जाता है, तो ‘आवश्यकता’ की हर चीज़ की व्यवस्था भी कर लेता है बिना किसी को नुकसान पहुँचाए।

आवश्यकता के लिए जब सबकुछ रहेगा तो पड़ोसियों से न जीडीपी को लेकर प्रतिस्पर्धा होगी और न ही हथियारों को लेकर, और न ही पड़ोसी ही ऐसा करेंगे। लेकिन ये तभी हो सकता है जब शिकार और शिकारी दोनों ही विदा हों सभी के भीतर से। फिर भला जब चार लोगों की भूख की ‘जरूरत’ के लिए बीस रोटियाँ पर्याप्त होगीं, तो फिर आसपास उपस्थित दूसरे लोगों और पर्यावरण को कष्ट पहुँचाकर रोटियों की संख्या में ज़बरदस्ती दस या पन्द्रह प्रतिशत की बढ़ोत्तरी करने की आवश्यकता ही क्या होगी? हाँ, जब परिवार में लोगों की संख्या न केवल सैकड़ों में हो, बल्कि सब उसको बढ़ाने के लिए आतुर हैं — क्योंकि उसके माध्यम से अपनी कामनापूर्ति की झूठी आशा बाँधे हुए है — ऐसी स्थिति में चार सौ रोटियाँ लाने के लिए सब ओर अत्याचार भी होगा और रोटियाँ पाकर भी तृप्त कोई नहीं होगा। और चार ही लोग हों पर वो भीतरी तौर पर सुलझे हुए न हो, तो भी उनकी कामना चार सौ लोगों के जितनी हो सकती है जिसकी पूर्ति के लिए बराबर का विनाश होगा। 

रोटियों के उत्पादन में भले ही कई गुना वृद्धि हो गयी हो, पर ये सवाल भी खड़ा हो गया कि इतनी रोटियों की ज़रूरत ही क्यों पड़ी — लोगों की स्थिति तो उन चार लोगों से बदतर ही है जिनके पास कुल दस रोटियाँ थीं। ज़रूरत तो सुलझने की है जिससे ही वास्तविक ज़रूरत और उसकी पूर्ति करने के सम्यक् मार्ग प्रशस्त हो सकते है। ज़रूरत कम और सुलझे होने की है। कम और सुलझे हुए लोग रहेंगे तो ही मनुष्य की तरक्की सम्भव है; संख्या में ज़्यादा और आन्तरिक रूप से बेहोश, जो भीतरी सुख के लिए अन्धाधुन्ध भोगों पर आश्रित है, ऐसे मनुष्यों के होने पर जो होता है, जो हो रहा है, उसकी सही नाम तरक्की नहीं, तबाही है।

कम होने कि स्थिति भी सुलझने के परिणामस्वरूप ही कालान्तर में आ सकती है। ज़बरदस्ती हिंसा के माध्यम से कम करने की बात ही बेतुकी है। भला जानवरों और पर्यावरण से करुणा और मनुष्य प्रजाति के प्रति द्वेष रखा जा सकता? इसी तरह से जानवरों व पर्यावरण के प्रति हिंसा रखते हुए मनुष्यों से प्रेम का दावा झूठा ही होगा, भले ही ये बात हमारे गले उतरे या नहीं। अगर जीवों व पर्यावरण को बचाना है तो मनुष्य को भी तो बचाना है। हाँ, चूँकि विकराल स्थितियाँ पैदा करने की मुख्य जिम्मेदारी मनुष्य प्रजाति की है, तो उसकी भलाई इसी में है कि वो सुधार की जिम्मेदारी भी अपने ऊपर ले और सबको बचाए, खुद के साथ-साथ। क्योंकि  बचेगे तो सब एक साथ बचेगे, नहीं तो कोई भी नहीं।

तो सवाल है कि करें तो करे क्या? अतीत में जाकर उसे नहीं पलटा जा सकता और न ही भविष्य में जाकर कुछ किया जा सकता है। हाँ, अतीत की गलती से सीखा जा सकता है और भविष्य में उसे न दोहराने का संकल्प वर्तमान में उठाया जा सकता है। और अतीत में मूलतया एक ही गलती हुयी थी — शोषणयुक्त भोग के माध्यम से भीतरी चैन या पूर्ति पाने की मिथ्या कोशिश। ये गलती न दोहराकर वास्तव में पहली घाटी की तरह दोहरे लाभ का रास्ता ही प्रशस्त होगा, न कि किसी तरह की कमी का सामना करेंगे। क्योंकि अधिकांश चीज़ें तो सिर्फ़ इसीलिए होती हैं क्योंकि समस्या थी। जब वो समस्या ही नहीं होगी जीवन में, तो उससे सम्बन्धित चीज़ों का बोझ ढोने की आवश्यकता भी न होगी।

नीति-निर्माताओं और बड़े-बड़े संस्थानों से भी बड़ी जिम्मेदारी सामान्य जनों की है, ताकि मनुष्य की भावी पीढ़ियों को विनाश के वो परिणाम न झेलने पड़े जो हमारी बेहोशी और लापरवाही के कारण आने शुरु ही हो चुके हैं। बिलकुल हो सकता है कि हमारे प्रयत्नों का अच्छा (या बुरा) परिणाम देखने के लिए हम इस दुनिया में न रहें, परन्तु किसी विद्वान ने कहा है, ‘जो ये जानते हुए भी वृक्ष लगाता है कि वो कभी भी उसके फल को नहीं पाएगा, उसने ही सही अर्थों में ज़िन्दगी को जीना शुरु किया है।’

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