सबसे पहले तो मैं बंकू महाराज से क्षमा माँगूँगा कि उनके आने के बाद भी मिलने में काफ़ी इंतजार करवाया, और फिर यात्रा पूरी करने के बाद भी इस समीक्षा को लिखने में दो दिन लगा दिए।
बहरहाल, बंकू – एक कहानी जो सामान्य होकर भी सामान्य नहीं है, क्योंकि ऐसी सामान्य कहानियाँ हमारे आसपास घटित होने हुए भी हम उनसे पूर्णत: अनभिज्ञ, अस्पर्शित रहते हैं। तो सामान्य सी इस असामान्य कहानी में क्या है खास, ये तो आपको बंकू ही बता सकता है। इसीलिए बिना देरी किए, जाइए और चलिए उसकी फुदकन के पीछे-पीछे।
पर कुछ बातें ज़रूर कहना चाहूँगा। बंकू एक संगम है दो जहानों का – मनुष्य और मनुष्येतर जीवों के जगत का – जिनमें वास्तव में कोई खास अंतर होता नहीं है, पर हम मनुष्य संवेदना के तंतुओं को खोकर इतने अलग हो गए हैं (या कहें भटक गए हैं) कि हमें उनका जहान अपने जहान से बहुत अलग लगता है। पर लेखक ने जिस तरह से इन दो के बीच पुल का निर्माण किया है, दोनों की समरूपता को जिस तरह प्रकट किया है, वो सराहनीय है।
बंकू की स्थिति को जिस तरह से सामने रखा गया है, उससे मुंशी प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ की याद मन में स्वत: ही उभर आती है। चाहे भूख और संबंध हो या आशा और दुख का, बंकू ने इन सबको पूरा-पूरा जिया है। सामान्यता समझा जाता है कि कुत्ते को गाली दोगे तो बुरा नहीं मान जाएगा, पर बंकू का रौब ही अलग है कि जहाँ इज्ज़त नहीं, उस घर में, उस गाँव में रहना ही नहीं। अंत आते-आते बात अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है कि इंसान हो या कोई जीव – चाहत तो प्रेम की ही है। कुल मिलाकर बंकू का जीवन दर्पण दिखाते हुए मानव जाति से कहता है कि जीवन मात्र इस बात से अलग नहीं हो जाता कि कौन दो पैरों पर चलता है और कौन चार पर।
जीवतंत्र की जिस अवधारणा की बात लेखक ने की है, वो तो आज की अनिवार्यता है। इसी तरह की बात कुछ महीनों पहले पूरी प्रकृति को लेकर सोनम वागंचुक जी कह रहे थे (और आचार्य प्रशांत जी तो और भी पहले से कह रहे हैं)। ऐसा जीवतंत्र/प्रकृतितंत्र तो कब का आ जाना चाहिए था, पर अब जब मशीनें अधिकांश काम कर रहीं हैं (जीवों के कत्लेआम का), ये आवश्यक हो गया है कि अति शीघ्र आए, और उसकी शुरुआत तो हम और आप से ही हो सकती है।
जहाँ तक कहानी की गति की बात है तो शुरुआत में गति बहुत धीमी लगी जब छोटे बंकू के रहने के लिए पूरी व्यवस्था की जा रही है, पर आगे के अध्यायों में बहुत सारा घटनाक्रम ताबड़तोड़ गति से कुछ ही पक्तियों में ही घटित होता लगा।
गुड़र-मुड़र कर सोने, झोपड़ी की टटरी (टटरिया) खोलने समेत अनेक घटनाओं के वक्त ग्रामीण क्षेत्र की भाषा की सुगंध एकदम छा गई
कुछ दिनों पहले में मुंशी प्रेमचंद जी के बारे में कहीं पढ़ रहा था कि शुरुआत की उनकी कहानियों की शैली उपदेशात्मक थी, और कहा जाता है कि बाद में उन्होंने उसमें बदलाव किया। बंकू में भी लेखक अनेक जगहों पर मानव मन के गूढ़ (और स्पष्ट) तथ्यों को सामने प्रस्तुत करते हैं जो कहानी के प्रवाह में प्रासंगिक होकर भी कहानी का हिस्सा होने के बजाय लेखक की अपनी बात ज़्यादा लगते हैं। यद्यपि हर कहानी या उपन्यास के पास उसके पाठक के लिए कोई-न-कोई संदेश तो होता ही है, पर फिर भी क्या उसे सीधे-सीधे कथानक में होना चाहिए या कहानी के पात्रों के माध्यम से ही वो संदेश प्रकट होना चाहिए? क्योंकि मुद्दों पर आधारित फ़िल्मों की भी कई बार इसी बात को लेकर आलोचना हो जाती है और दर्शकों की शिकायत रहती है कि हम तो मनोरंजन के लिए सिनेमाघर जाते हैं, ज्ञान सुनने नहीं। अमित जी, इस बारे में आपका क्या कहना है?
एक और बात जो साहित्य के साथ-साथ आम बोलचाल में सदा रही है वो है इंसान द्वारा घटिया हरकत किए जाने पर उसे जानवर कहा जाना। बंकू को पढ़ने के बाद ऐसा करना न केवल बंकू का अपमान है, बल्कि समस्त मनुष्येतर जीवों का अपमान है जो कोई घटिया हरकत वास्तव में करते नहीं है, बस प्रकृतिगत व्यवहार करते हैं, जबकि मनुष्य घटियापने का ‘चुनाव’ करता है अपने लालच, स्वार्थ और बेहोशी के चलते। इसीलिए अब साहित्य में मनुष्य के गर्हित व्यवहार को जानवरों या पशुता से जोड़ने के बजाय सब जगह किसी और ही शब्द का इस्तेमाल किया जाना चाहिए – हैवान, शैतान या कुछ और।
इसी तरह एक और शब्द जो पहले से ही फ़िल्मों और लोककथाओं द्वारा पूरा ही विकृत कर दिया गया है, और साहित्य में भी उसकी विकृति हुई है वो है – ‘आत्मा’। इसके लिए भी साहित्य में जल्द ही कोई नया शब्द खोजने की आवश्यकता है, क्योंकि फिल्मों और कहानियों की ‘आत्मा’ (अर्थात् अहम्) को आगे चलकर ग्रंथों वाली ‘आत्मा’ (अर्थात् ब्रह्म, परम सत्य) के समानार्थी समझ लिया जाता है; और उसके दुष्परिणामों की कोई इंतहाँ ही नहीं। यद्यपि जीवात्मा शब्द पहले से है, पर आत्मा और जीवात्मा तो जैसे पर्यायवाची ही हो गए हैं लोकसंस्कृति में।
बाकी बंकू का साथ तो अब रहेगा, क्योंकि अब तो वो सीने में उतर गया है, या कहो कि सदा से ही सीने में था।